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________________ २९४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक चोक्खु स-रागउ, सिंगार-हार-दरिसावणु। पुप्फ-रज्जु-झुवंत, जलकोडणउ सलक्खणु ॥ -स्वयंभूरामायण, २६.१४--१६. हिन्दी प्रेमाख्यानकों में भी जलक्रीड़ा के प्रसंग प्रायः ही. आये हैं। कुतुवनकृत मृगावती में जलक्रीड़ा का स्वाभाविक वर्णन इस प्रकार है : .' अभरन चीर उतार धरि, पैठी सवै अन्हाइ। ससिर नखन लै तारे, सरवर खेलै आइ ॥ चंचल चपल सुजान सुनारी। मिलि सहेलिन्हि खेलि धमारी ॥ कोड़ करहिं कुमुदिनि सब तोरहि। बिहंसहि हंसहि कंवलघट तोहि ॥ . . -पृ० १५५. जायसो ने मानसरोदक खंड में पद्मिनी बालाओं के सरोवर-स्नान का चित्रण इस प्रकार किया है : धरी तीर सब छीपक सारों । सरवर मंह पैठीं सब बारी॥ पाएं नीर जानु सब बेलीं। हुलसी कहि काम के केलों ॥ -पृ० ६२. लागों केलि करै मंझ नोरा । हंस लजाइ बैठ होइ तोरा ॥ पदुमावति कौतुक करि राखी । तुम्ह ससि होहु तराइन साखो। बादि मेलि के खेल पसारा । हारु देइ जौं खेलत हारा ॥ संवरहि सांवरि गोरिहिं गोरी । आपनि आपनि लीन्हि सो जोरो॥ . -पृ० ६०. उसमानकृत चित्रावली का चित्रण भी लगभग इसी परम्परा में देखिए : तौर धरिन सब चीर उतारी, धाइ धंसी सब नीर मंझारी। कनकलता फैलों सब बारी, पुरइनि तोर जानु जल डारी।. मानहुँ ससि संग सरग तराई, केलि करत अति लाग सोहाई। हंस देखि जलहर तजि गए, पदुम सबै दिन कुमुदिनी भए।
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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