________________
हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : २९३ जुल-क्रीड़ा
निर्मल सरोवरों में स्त्रियों की जलक्रीड़ा का चित्रण भी अपभ्रंश काव्यों में बेजोड़ किया गया है । कहीं-कहीं ऐसा भी देखा गया है कि जो राजा दिग्विजय करते थे वे विजित राजा की रानियों के साथ वापियों में स्नान करते थे । कविवर पुष्पदन्त ने णायकुमारचरिउ में स्त्रियों की जलक्रीड़ा का जो वर्णन किया है वह बड़ा ही सजीव और स्वाभाविक बन पड़ा है :
गणिवरण तणु जलेल्हिक्कावर अद्ध मिल्लू का वि थणु दावइ । पमिणिदल जलबिंदु वि जोयइ का वि तहिं जि हारावलि ढोयइ । कावि तरंगह, तिवलिउ लक्खइ सारिच्छउ तहो सुहयहो अक्खइ । काहे वि सहयरु परिमल बहलहो कमलु मुएवि जाइ मुह कमलहो । सुहुमु जालोल्लु दिट्ठणहमग्गउ काहे वि अंबरु अंगि विलग्गउ । काहे वि उपपरियणु जले घोलइ पाणियछल्लि व लोउ निहालइ ॥
कोई स्त्री ( लज्जावश ) अपने वस्त्ररहित शरीर को जल में छिपा है। कोई अर्धोन्मीलित स्तन को प्रदर्शित कर रही है । कोई हारावलि को धारण करती हुई जल बिन्दु युक्त पद्मिनी कमलिनी के समान लग रहीं है । कोई तरंगों से त्रिवलियुक्त प्रतीत हो रही है । भ्रमर कमल को छोड़कर किसी के मुख कमल पर बैठ रहा है । किसी के शरीर पर भींगा वस्त्र चिपका हुआ है जो मेघ के समान प्रतीत हो रहा है । • स्वयंभू कवि ने भी जल-क्रीड़ा का चित्रण करते हुए लिखा है कि युवकयुवतियां जल-क्रीड़ा कर रहे हैं । वे देवताओं के समान स्नान करते हुए लीला कर रहे हैं। जल को हाथों से उछाल रहे हैं । मुरज-वाद्य आदि दिखाई पड़ रहे हैं । वे नाना प्रकार के गीत गा रहे हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार की भंगिमाएं बना रहें हैं आदि :
1
तहं नर-नारि- जुवइ जल कीडइ । कोडंताइ व्हंति सुरलीलइ ॥ सलिलु करग्गह आप्फालंतइ । मुरय वज्ज-धायव दरिसंतह ॥ खलियहि वालियहि अहिणव- गेयहि । बद्धइ मुयक्रखित्तिय तेर्याह ॥ छंदेहितालिहिं बहुलय-भंगेहि । करुणुच्छेत्तिहि णाणा भंगेहि ॥