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२९२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
पैरहिं हंस मांछ बहिरा हैं । चकवा चकवी केरि दबला ढेंक बैठ झरपाये । बगुलाबगुली सहरी बनलेउ सुवन घना जल छाये । अरु जलकुकुरी पसरों पुरई तूल मतूला । हरियर पात तइ रात फूला ॥ पाँखी आइ देस कर परा । कार कंरजवा जलहर भरा ॥
बर
छाये ॥
करा हैं ॥
खाये ॥
सारस कुरर्लाहि रात नींद तिल एक न आवइ ।
सबद सुहाव कान पर जागह रैन बिहावई ॥ २२ ॥
संस्कृत कथाकाव्यों एवं अपभ्रंश के सरोवर वर्णनों में रूढ़िगत साम्य तो है परन्तु संस्कृत काव्यों में जो आलंकारिक चित्रण किया गया है वह अपेक्षाकृत अधिक आकृष्ट करता है । उदाहरण के लिए कादम्बरी के पम्पा एवं अच्छोद सरोवर का वर्णन इस प्रकार है :
'वह सरोवर ऐसा आभायुक्त था मानों पृथ्वी देवी ने अपने निवास के लिए स्फटिक का भूमिगृह रच रखा हो। वह ऐसा गंभीर था मानों समुद्रों ने पाताल से ऊपर आने का मार्ग बनाया हो। वह क्षितिज के छोर तक फैला हुआ था मानों दिशाओं के भीतर से उनका रस चूकर एकत्र हो गया हो। वह इतना विस्तृत था मानों आकाश का अंशावतार हो । उसके जल की शुभ्रता ऐसी थी मानों रजताद्रि कैलाश ही द्रवित हो गया हो। उसकी धवलता से ज्ञात होता था मानों शिव का अट्ट हास ही जल बन गया हो। उसकी नीली आभा से ऐसा लगता था मानों वैदूर्य पर्वत सलिल के रूप में दिखाई पड़ रहा हो । उसकी उज्ज्वलता ऐसी थी मानों शरदाकाश की मेघमाला गलकर पृथ्वी पर आ गई हो " | कहीं उसमें तरंगें उठ रही थीं । कहीं क्रौंचवनिताएँ कलरव कर रही थीं। कहीं धार्तराष्ट्र नामक पाण्डुवर्ण के हंस पानी में पंख फड़फडा रहे थे । कहीं किनारे पर बैठकर मोर जल में चोंच डुबा रहे 'थे....'' | कहीं अनंत शतपत्र और पुंडरीक खिले हुए थे जिन पर उड़ते हुए भ्रमरकुल संगीत की तान छेड़ रहे थे। कहीं क्रीड़ा के लिए आए हुए हाथी सूड़ों में जल भर कर उडेल रहे थे।"
१. डा० वासुदेवशरण अग्रवाल, कादम्बरी: एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १३३-३४.