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२८८ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
करकंडु णराहिउ परपहाणु ॥ जहिं पाउलपिल्लई मणु हरंति । सुर खेयर किणर जहिं रमंति ॥ गयलीलई महिलउ जहिं चलंति। णियरूवें रइरूउ वि खलंति ॥ जहिं देक्खिवि लोयहं तणउ भोउ। वीसरियउ देवहं देवलोउ ॥ आवासिउ णयरहो वहिपएसे। अरिसंक पवडिढय तहिं जि देसे ॥ आवासु मुएवि सहयरसमेउ। करकंडु गयउ रमणिहिं अमेउ । तहि गरुवउ सवणसहि भरिउ । णं कप्पवच्छु देहि धरिउ॥ दलवंतहि पहिं परियरिउ ।
वडु दिठु राएं समु वित्थरिउ॥ घत्ता-करकंडे पेक्खिवि तहो वडहो दोहइं सुठु सुकोमलई। .. ता लेविणु गुलिया धणुहडिया विद्धाइं असेसई सद्दलई ॥
-वही, ७.५. पृ० ६४. अर्थात् एक दिन करकंडु ने ( सिंहलद्वीप ) शोघ्र प्रस्थान करने की आज्ञा दो। नराधिप करकंडु अपने परिकर के बीच विराम लेता हुआ सिंहलद्वीप पहुँचा। जहाँ पर (सिंहलद्वीप में ) लाल बत्तखें (पक्षी विशेष ) मन को लुभा रहीं थीं, सुर, खेचर और किन्नर क्रोडारत थे। जहाँ की स्त्रियाँ गजगामिनी थीं और अपने रूप-सौन्दर्य से रति के रूप को भी फोका कर रही थीं। जहाँ पर तरुणों के भोग-विलास को देखकर देवताओं को देवलोक विस्मृत हो जाता था। नगर के बाहर उसने पड़ाव डाला जिससे उस नगर के लोगों को शत्रु की शंका हो गई। अपने आवास को छोड़कर करकंडु अपने साथियों के साथ क्रीड़ा करने के लिए बाहर गया। वहाँ करकंडु ने एक विशाल बरगद का वृक्ष देखा जिस पर
सैकड़ों पक्षी बैठे थे, ऐसा लगता था मानों देवताओं से रक्षित कल्पतरु .. हो जोकि धनी पत्तियों से युक्त था। अधिक एवं कोमल पत्तियों को