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२८६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
वस्तु-वर्णन ___ वस्तु-वर्णन काव्य का प्रधान अंग है । कथानक की शोभा वस्तु-वर्णन के सफल चित्रण पर निर्भर करती है । वस्तु-वर्णन के अन्तर्गत आने वाले तत्त्वों के विषय में प्रबन्ध के तृतीय अध्याय में विचार किया जा चुका . है । यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जा रहा है। कथा में प्रमुख . स्थलों अथवा नगरविशेष का. वर्णन आवश्यक होता है। अपभ्रंश काव्यों की इस परम्परा का हिन्दी प्रेमाख्यानकों ने अनुकरण किया । नगर-वर्णन - अपभ्रंश कथाकाव्य करकंडुचरिउ में चम्पानगरी का वर्णन इस ' प्रकार किया गया है : तहिं देसि रवण्णइं धणकणपुण्णइंअत्थि णयरि. सुमणोहरिय। जणणयणपियारी महियलि सारी चंपा णामइं गुणभरिय ॥,
जा वेढिय परिहाजलभरेण। णं मेइणि रेहइ सायरेण ॥ उत्तुंगधवलकउसीसएहि ।
णं सग्गु छिवइ बाहूसहि ॥ अर्थात् उस रमणीक देश में धन-धान्य से पूर्ण. आकर्षक चम्पानगरी थी, जो लोगों की आँखों को प्रिय लगती थी और इस महीतल पर सभी गणों से यक्त थी। वह चारों ओर से जल-परिखा से घिरी हई थी तथा ऐसी लगती थी मानों पृथ्वी समुद्र से घिरी हो । गगनचम्बी धवल शिखर आकाश को छूती हुई सैकड़ों बाहुओं के समान लगते थे और जहाँ जैन मन्दिर उत्तुंग खड़े शोभित हो रहे थे मानों निर्मल अभंग पुण्य-पुंज हो । उन मंदिरों पर रेशमी वस्त्रों की झंडियाँ लहलहा रही थीं। ऐसा लगता था मानों आकाश में श्वेत सर्प लहरा रहे हों :
जिण मंदिर रेहहिं जाहिं तुंग। णं पुण्णपुंज हिम्मल अहंग॥ कोसेयपडायउ घरि लुलंति । णं सेयसप्प णहि सलवलंति ॥१.३-४.