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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : २८५ सांसारिक सुखों से वैराग्योत्पादन के लिए वैरागर खंड ( वैराग्य खंड ) की ही रचना कर दी। इसका कारण यही था कि वे कथा का अन्तिम लक्ष्य कन्याप्राप्ति ही नहीं मानते थे। अतएव कथानायक सूरसेन को जब यह पता चलता है कि: जगत अनित्य कर्म ही नीरा। केवल विमल नामु हरि होरा ॥ कामिनि कनक और हय हाथी। ये तो नहीं संग के साथी ॥ ३२९ ॥ सुकृत संग और नहिं कोई। . क्यों नहिं भजन हरी तिहिं सोई॥ ममता चित्त करौ जिन कोई। है प्रभु और न दूजौ होई ॥ ३३० ॥ मुक्ति संग है और न कोई। . · क्यों न भजे हरि से हितु होई ॥ कलि प्रतिपाल बाल सुत दारा। मनो ग्वाल गोचारन हारा ॥ ३३४॥ • भी सूरसेन को वैराग्य उत्पन्न हो जाता है : सुनत सूर उपज्यौ वैरागा। विष्णु भक्ति बाढ़ौ अनुरागा॥ सब संपति तह त्रिन कर जानी। . . विष्णुभक्ति निश्चय उर आनी॥ - इसके बाद वे अपना सारा राज्य पुत्रों को सौंपकर काशीवास करने के लिए चले जाते हैं : सुंदर, सूर सुबुद्धि उदारा। गोरख ज्ञान सैनिक अवतारा॥ काशीवास कियो तिन जाई। इतनी कथा सुकवि गुन गाई ॥३४३॥ सारांश यह कि कथोद्देश्य की दष्टि से भी यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दी प्रेमाख्यानक अपभ्रंश कथाकाव्यों के प्रभाव से मुक्त रहे ।
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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