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२८४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
परन्तु अपभ्रंश कथाओं में प्रेमाख्यानकों का होना सिद्ध है, साथ ही कन्याप्राप्ति का फलरूप भी विद्यमान है। मनुष्य के लिए इसके आगे भी कुछ करना रहता है, यह भारतीय दर्शन है। इसी भारतीय दर्शन के अनुसार उन काव्यों में नायक को सांसारिक मौज-मस्ती ले लेने के बाद किसी मुनि के सदुपदेश से धर्म की मान्यताओं के अनुसार मोक्ष अथवा स्वर्गादि पारलौकिक गति प्रदान कराई जाती है। यही उनका कथोद्देश्य हो जाता है। संस्कृत कथाएं प्रायः उस भारत की उपज हैं जो विदेशी 'आक्रमणों से सुरक्षित समृद्धि और निश्चिन्तता में जी रहा था । अपभ्रंश
और हिन्दी के प्रेमाख्यानों में यदि इस लोक के सुख के अलावा कुछ और भी चित्रित हुआ तो इसे हम तत्कालीन परिवेश को बाध्यता तथा धार्मिक आन्दोलनों का परिणाम मान सकते हैं। हिन्दी प्रेमाख्यानकों पर इस प्रवृत्ति का पूरा प्रभाव पड़ा। सूफी काव्य तो. आध्यात्मिक उद्देश्य से लिखे ही गए, संस्कृत परम्परा का अनुसरण करने वाले हिन्दी प्रेमाख्यानों में भी जीवन के चतुर्थ पुरुषार्थ 'मोक्ष' की कम चर्चा नहीं हुई । पुहकरकृत रसरतन में कथा का उद्देश्य कन्याफल के अतिरिक्त कुछ और भी दिखलाया गया है। पुहकर कहते हैं :
पुहकर वेद पुरान मिल, कोनो यही विचार । यहि संसार असार में, राम नाम है सार ॥ ३५० ॥ वैरागर वैराग वपु, हीरा हित हरिनाम। प्रोत जोत जिय जगमगै, हरै त्रिविध तन तापु ॥ ३५१ ॥ सत संगति सत वृद्धि उर, विष घरनी संग लाय। ज्ञान वान प्रस्थान करि, तजै विष सुखपाय ॥ ३५२॥ तातें तत्व लहै मुकर, सूझ देख मन मांहि । कोई तेरे काम नहि, तू काहू को नाहि ॥ ३५३ ॥ परधन पर दारा रहित, पर पीहि मन लाय। काम क्रोध मद लोभ तज, विजय निसान बजाय ॥ ३५४ ॥ प्रहकर भव सागर गरुव, निपट गहिर गंभीर।
राम नाम नौका चढ़े, हरिजन लागें तीर ॥ ३५५ ॥ रसरतन के रचयिता ने विशुद्ध एवं उत्कृष्ट कोटि के भारतीय प्रेमाख्यान की रचना की। अन्त में उन्होंने सूरसेन ( कथानायक ) को