SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : २८१ कथाकाव्य है तो उसमें मूलकथा नागकुमार को लेकर ही चलेगी। करकंडुचरिउ नाम है तो उसमें उसी व्यक्तित्व का चरित्रांकन मिलेगा। ठीक यही पद्धति हिन्दी प्रेमाख्यानकों ने स्वीकार की और कथा के नायक या नायिका अथवा दोनों के नाम पर ही काव्य का नाम रखा। उदाहरणार्थ-मधुमालती, मृगावतो, चन्दायन, माधवानल-कामकन्दला, छिताईवार्ता, कनकावली, पुहुपावती, लैला-मजनूं आदि । कथाकाव्यों के चरित्र अपभ्रंश कथाकाव्यों में अधिकांश रचनाएं चरितसंज्ञक ही हैं। उनमें चरितनायकों के चरित्र को उत्तम कोटि का सिद्ध करने के लिए कथाकारों ने अपनी प्रतिभा का पूर्ण सदुपयोग किया है। सम्भवतः इसका मूल कारण अपभ्रंश · रचनाकारों को धार्मिक भावना रही है। चूंकि अपभ्रंश के कथाकाव्यों में प्रायः जैन शलाकापुरुषों में से ही किसी के चरित को कथा का विषय बनाया गया है। दूसरी बात यह कि रचनाकार उत्कृष्ट कोटि के चरित्रों के माध्यम से समाज में अच्छे चरित्रों के निर्माण की भी अपेक्षा रखता है। प्रायः अपभ्रंश काव्यों में चरित नायक अथवा प्रधान पात्र के अतिरिक्त अन्य प्रासंगिक पात्रों के चरित्र पर विशेष दष्टि नहीं. रखी गई। संस्कृत के काव्य अपभ्रंश काव्यों से चरित्र-चित्रण की दृष्टि से भिन्न प्रारूप में रचे गए। चरित्र-चित्रण की अपेक्षा संस्कृत काव्यों में रस-अलंकारों का विशेष ध्यान रखा गया। - हिन्दी प्रेमाख्यानकों की चरित्र-चित्रण की पद्धति पर अपभ्रंश कथाकाव्यों का प्रभाव पड़ा। .. अपभ्रंश काव्यों में कुछ पात्र ऐतिहासिक और कुछ काल्पनिक चुने जाते रहे । ऐतिहासिक और काल्पनिक कथाओं का मिश्रण करके कथाओं का न्यास किया जाता था। इस परम्परा का भी हिन्दी प्रेमाख्यानकों में पालन किया गया। कौतूहलकृत लीलावतीकथा का नायक सालिवाहन ऐतिहासिक व्यक्ति है। कवि ने कथा की नायिका लीलावती को सिंहल की राजकुमारी के रूप में अंकित किया है। हर्ष (सातवीं शती) ने अपनी रत्नावली नाटिका में रत्नावली को सिंहल को राजकुमारी बताया है।' १. रत्नावली नाटिका, अंक ४.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy