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२८० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
अध्याय में क्या रहेगा उसी के अनुसार रचनाकार उसे चिह्नांकित करता है। नगर-निर्माण में सुरक्षा के साधन के रूप में परिखा, प्राकार आदि की रचना होती है तो कथा को सुगठित बनाने के लिए कथानक की सीमा-रेखाएं तै कर ली जाती हैं। नगरों में प्रवेशद्वार, गोपूर आदि होते हैं तो कथाओं में परिच्छेद और अध्यायादि होते हैं। कथानक में प्रवेश करने के लिये इन्हीं परिच्छेदों या खण्डों को जानकर ही आगे का प्रवेश सुगम्य होता है। नगरों का सौन्दर्य वहाँ के उद्यानों, सरोवरों, चित्रशालाओं एवं हाटों आदि के सुन्दर निर्माण पर आधारित होता है । श्रेष्ठ कथानकों में उक्त वस्तुओं के सरस वर्णनों से कथानक की शोभा बढ़ती है। आचार्य रुद्रट की परिभाषा विवेच्य प्रेमाख्यानकों पर कहीं पूर्णरूप से और कहीं अधिकांशरूप से लागू होती है। यह बात पुरविन्यास और कथाविन्यास के तुलनात्मक अध्ययन को दृष्टि में रखकर : प्रमाणित सिद्ध होती है। इतना ही नहीं अपितु नगरों के नामकरण के समान ही कथाओं के नामकरण को परिपाटी भी हमारे सामने है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार अलम्बुषा नामक एक अप्सरा थी जिसके गर्भ से इक्ष्वाकु नामक एक परम धार्मिक एवं पराक्रमी नरेश को विशाल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । इसी ने वैशाली नामक नगर की नींव डाली।' इसी तरह पाटलिपुत्र के नामकरण के सम्बन्ध में किंवदन्ती है कि पाटलि वृक्ष के पुत्र के घर के चतुर्दिक इस नगर के बसने के कारण इसका नाम पाटलिपुत्र पड़ गया। वरुणा और अस्सी नदियों के तट पर बसने के कारण वाराणसी नाम पड़ा। पुराणों के अनुसार निमि के पुत्र मिथि के नाम के आधार पर मिथिला नाम पड़ा। कहने का तात्पर्य यह कि नगरों के नाम श्रेष्ठ व्यक्तियों, नदियों, पर्वतों आदि के नाम पर रखे जाते थे। इसी प्रकार हम कथाओं के नामकरण को भी देख सकते हैं । पूर्व विवेचित अपभ्रंश कथाकाव्यों के नामों से स्वतः प्रमाणित हो जाता है कि उनका नामकरण कथा के प्रधान नायक, नायिका अथवा विषय के आधार पर किया जाता था। यदि नागकुमारचरित नामक १. डा० उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर-जीवन,
पृ० १४०. २. वही, पृ० १५०. ३. वही, पृ० १७९.