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________________ • २७८ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक ३. नगर-चिह्न : भूमि-शोधन क्रिया के बाद नगर के विभिन्न भागों परिखा, प्राकार, दुर्ग, राजपथ तथा अन्य स्थानों-भवनों की निर्माणयोजना के अनुसार भूमि पर धातुनिर्मित कीलों को गाड़ दिया जाता था और उन्हें मजबूत धागों से एक-दूसरे के साथ बांध दिया जाता था। इस प्रकार सभी स्थान निर्दिष्ट कर दिये जाते थे। .... ____४. सुरक्षा के साधन : नगर-नियोजन के पूर्व उसकी सुरक्षा का प्रबन्ध कर लिया जाता था। ये साधन दो प्रकार के होते थे : १. . प्राकृतिक-नदो, पर्वत. आदि, २. कृत्रिम-परिखा, प्राकार आदि । सर्वप्रथम परिखा का निर्माण किया जाता था। परिखा से निकलने वाली मिट्टी द्वारा हो वप्र का निर्माण किया जाता था और इस पर विषलेकटोले पौधे लगा दिये जाते थे। परिखा ३ प्रकार की-जलपरिखा, रिक्त-. परिखा और पंकपरिखा होती थी। । ५. प्राकार : परिखा के बाद जो वप्र होता था ,उसी के ऊपर परकोटा या चहारदीवारी बनाई जाती थी। यह नगर की सुरक्षा का अभेद्य साधन माना जाता था। प्राकार की संख्या बड़े-बड़े नगरों की एकाधिक भी होती थी। इन प्राकारों पर चारों दिशाओं में बुर्ज भी बनाये जाते थे। ६. गोपुर : नगर के प्राकार में जो द्वार होते थे उन्हें गोपूर कहा जाता था। इन द्वारों की संख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से मानी गई है। परन्तु सभी में ४ प्रधान द्वार होते थे जिनमें मजबूत फाटक लगे होते थे। ____७. नगरों का आकार : नगरों के चौकोर, आयताकार, वृक्षाकार, समानान्तर चतुर्भुजाकार, अर्धचन्द्राकार, भुजंगाकार और त्रिभुजाकार होने का प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। ८. राजमार्गों का निर्माण : परिखा आदि के निर्माण के पश्चात् राजमार्गों का निर्माण किया जाता था। इसका उद्देश्य यह रहता था कि भवनों के निर्माण को यदि पहले किया जाता तो राजपथों का कम चौड़ा होना या टेढ़े-मेढ़े होना सम्भावित था। ये राजमार्ग नगरों के आकार, आबादी के हिसाब से तथा सुरक्षा की दृष्टि से बनाये जाते थे। राजमार्गों के साथ ही छोटे-छोटे मार्ग भी बनाये जाते थे। ये जहां एकदूसरे को काटते थे वहां चौराहे बनते थे।
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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