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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : २७७ विकास का, नियोजन करने के लिये सामयिक गतिविधि' को कहा गया है ।' भारतीय वास्तु वाङ्मय में विश्वकर्मीयशिल्प, मानसार, मयमत और समरांगणसूत्रधार जैसे प्रतिष्ठित ग्रन्थों में इस विषय पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। आदिपुराण में नगर उसे कहा गया है जिसमें परिखा, गोपुर, अटारी और प्राकारमण्डित नाना प्रकार के भवन हों, जो जलाशय और उद्यान से युक्त हों । पानी निकालने के लिए नालियां भी जहाँ बनी हों।
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पुरविन्यास के लिए योग्य शिल्पियों द्वारा योजना प्रस्तुत कराई जाती थी । उसी पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार पुरविन्यास का कार्य पूर्ण किया जाता था । डा० उदयनारायण राय ने 'प्राचीन भारत में नगर तथा नगर-जीवन' नामक अपने शोध-प्रबन्ध में पुरविन्यास सम्बन्धी महत्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित किए हैं। उनके अनुसार पुरविन्यास की संक्षिप्त योजना इस प्रकार कार्यान्वित होती थी :
१. भूपरीक्षा : किसी भी नगर के निर्माण के पूर्व भूमि का निर्धारण करना आवश्यक था । भूमि के चुनाव में प्राचीन विशेषज्ञों के विचारों को महत्त्व दिया जाता था । अनेक ग्रन्थों में नदियों के संगम पर अथवा नदियों के तट पर या पर्वत के पास पुर का बसाना उत्तम माना गया है ।
२. बलिकर्मविधान : भूमि का निर्धारण करने के बाद उसके शोधन का कार्य किया जाता था । भूमि-शुद्धिकरण के लिये पूजा चढ़ाई जाती थी जिसे 'बलिकर्मविधान' की संज्ञा दी गई । एक प्रकार का भूमि पर 1. अनुष्ठान होता था जिसके बाद भूमि शुद्ध मान ली जाती थी और सम्राट विभिन्न वस्तुएं दान करता था ।
१. हिन्दी विश्वकोश, भाग ७, पृ० २४३. २ . वही.
३. परिखागोपुराट्टालवप्राकारमण्डितम् । नानाभवनविन्यासं सोद्यानं सजलाशयम् ॥ पुरमेवंविधं शस्तमुचितोद्देश सुस्थितम् ।
पूर्वोत्तरप्लवाम्भस्कं प्रधानपुरुषोचितम् ॥ आदिपुराण, १६.१६९-७०.