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२७६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
कथाकाव्यों के रचयिताओं की सराहना करनी होगी। लगता है अपभ्रंश कथाकारों ने संस्कृत के लक्षणका रों की मान्यताओं का भी ध्यान रखा । संस्कृत साहित्य के प्रमुख आचार्य रुद्रट ने कथा का जो लक्षण दिया हैं उसमें वे लिखते हैं- 'रचयेत् कथाशरीरं पुरेव पुरवर्णकप्रभृतीनि ' अर्थात् कथा की रचना 'पुर' की तरह करनी चाहिये । रुद्रट के इस मत को या तो नज़रन्दाज कर दिया गया अथवा जानकर भी लोगों ने इसे महत्त्व नहीं दिया है । इस प्रसंग का जो भी कारण रहा हो किन्तु तथ्य यह है कि रुद्रट के इस लक्षण को कथाओं के मूल्यांकन की दृष्टि से देखा जाये तो निःसन्देह यह प्रामाणिक होगा । अर्थात् कथा का पुर की तरह विन्यास होता है | पुरविन्यास और कथा विन्यास का प्रश्न विचारणीय है। पुरविन्यास और कथाविन्यास
प्राचीन साहित्य में 'पुर' शब्द नगर के अर्थ में प्रयुक्त होता था। उदाहरणार्थ - तैत्तिरीय संहिता में नंगर शब्द का उल्लेख पुर के अर्थ में ही हुआ है । 'पुर' शब्द का उल्लेख तैत्तिरीयब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण और शतपथब्राह्मण' में मिलता है । पिशेल के अनुसार प्राकार एवं परिखा से परिवेष्ठित नगर 'पुर' कहलाता था । उल्लिखित पुर के 'विन्यास के लिए विभिन्न ग्रन्थों में नगर-निवेशन, नगर-स्थापन, नगरविन्यास, नगर - विनिवेश, पुर- निवेशन, पुरस्थापन, नंगर-करण और नगरमापन जैसे अन्य शब्दों का प्रयोग किया गया है। हिन्दी-विश्वकोश में 'पुरनिवेश या नगरनियोजन नगरों, कस्बों और गांवों के प्रसार का, विशेषकर उनमें भवन निर्माण हेतु भूमि के और संचरण व्यवस्था के
१. देखिए - 'श्रमण', नव० - दिस० अंक, १९६७, पृ० ४७- ४९ पर लेखक का लेख.
२. नैतमृषि विदित्वा नगरं प्रविशेत - तैत्तिरीयसंहिता, १.२.१८.३१.४.
३. तैत्तिरीय ब्राह्मण, १.७.७५.
४. ऐतरेय ब्राह्मण, १.२३.२.११.
५. शतपथब्राह्मण, ३.४.४.३.
६. वेदिक इण्डेक्स, भाग १, पृ०५३९.
७. डा० हृदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर- जीवन, पृ० २३१.