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हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन २७५. प्रकट की है। जैसा कि इस युग की राजनीतिक अवस्था का विवेचन करते समय हम देख चुके हैं कि अनेक छोटे-छोटे राज्य थे। उनमें बहुत से कवियों को राज्याश्रय प्राप्त था। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि रजवाड़ों अथवा सामन्तों के लिए हो इस युग में काव्य रचे गये अपितु साधारण जनता के लिए भी कथाकाव्यों की रचनाएं हुईं। प्रबन्ध के पांचवें अध्याय में विवेचित लीलावईकहा, समराइच्चकहा, भविसयत्तकहा, पउमसिरिचरिउ, जसहरचरिउ, णायकुमारचरिउ, जम्बूसामिचरिउ, करकंडुचरिउ, सुअंधदहमीकहा, मयणपराजयचरिउ आदि रचनाएँ इसी काल ( ८वीं से १५वीं शती ) को अपभ्रंश रचनाएं हैं। अपभ्रंश-हिन्दी प्रेमाख्यानकों में पूर्वापर सम्बन्ध
हिन्दीसाहित्य के इतिहासकारों ने काल-विभाजन की दष्टि से १०५० ई० से हिन्दी साहित्य का आरम्भ स्वीकार किया है। जैसा कि हम देख चुके हैं, अपभ्रंश साहित्य की रचनाएँ ८वीं शताब्दी से १६-१७वीं शती तक होती रहीं। हिन्दी प्रेमाख्यानकों में सबसे पहला प्रेमाख्यान चन्दायन ( १३५० ई०) उपलब्ध है। अपभ्रंश कथाकाव्यों एवं हिन्दी प्रेमाख्यानकों में पूर्वापर क्रमिक सम्बन्ध है। इसका कारण यह है कि अपभ्रंश कथाकाव्यों के सर्जनकाल और हिन्दी प्रेमाख्यानकों के रचनाकाल के मध्य में कोई अन्तराल नहीं है। कुछ समय तक हिन्दी प्रेमाख्यानक और अपभ्रंश कथाकाव्य समानान्तर रूप से भी लिखे जाते रहे। अपभ्रंश कथाकाव्यों एवं हिन्दी प्रेमाख्यानकों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपभ्रंश कथाकाव्य हिन्दी प्रेमाख्यानकों के ही पूर्व प्रचलित शिल्प-विधान में रचे गये-अर्थात् हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का ही ऐतिहासिक विकास है। उदाहरण के लिए इनके कथा-विन्यास, चरित्र, कथोद्देश्य, वस्तुवर्णन आदि का क्रमशः तुलनात्मक अध्ययन करना आवश्यक है। कथा-विन्यास
कथा-विन्यास किसी कथाकाव्य को अच्छा-बुरा साबित करने की कसौटी है। यही कारण है कि एक श्रेष्ठ कथाकार अपनी रचना को पूर्वनियोजन के आधार पर विन्यस्त करता है। इस संदर्भ में अपभ्रंश
१. पं० राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी-काव्यधारा, १९५५, पृ० ४५...