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________________ २७४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक वर्णों के नियमपालन का आधार मनुस्मृति थी। फिर भी कतिपय क्षत्रिय नरेशों ने शस्त्र और शास्त्र दोनों विद्याओं पर समानाधिकार प्राप्त किया। राजा भोज पंडितों के आश्रयदाता भी थे और स्वयं एक प्रकाण्ड विद्वान् भी। भोज के चाचा मुंजराज को अपभ्रंश का कौन-सा पाठक नहीं जानता ? मुंज न स्वयं अपभ्रंश का कवि था बल्कि अपने रोमांटिक व्यक्तित्व के कारण अनेक प्रेमाख्यानों का नायक भी । कहने का तात्पर्य यह कि शास्त्र-ज्ञान में ब्राह्मण ही पारंगत हो सकता था, यह इन राजाओं ने असिद्ध कर दिया था। स्मति के अनुसार कृषिकर्म वैश्यों का ही था। परन्तु धर्म परिवर्तन कर लेने से वैश्यों ने अधिकतर यह कर्म छोड़ दिया। अतः शद्रों को यह भार भी वहन करना पड़ा। ९वीं-१०वीं शताब्दी तक ब्राह्मण एवं क्षत्रियों के लिए भी कृषिकर्म त्याज्य नहीं रह गया था। इन सब बातों के रहते जाति-पांति के भेद : बढ़ते जा रहे थे। छुआछूत का रोग चरम सीमा तक पहुँच गया । बालविवाह की प्रथा चल पड़ी। जम्बूस्वामीचरिउ आदि अपभ्रंश रचनाओं से पता चलता है कि राजाओं एवं सेठों में बहुपत्नी प्रथा भी थी। ___ इस प्रकार १४वीं--१५वीं शताब्दी तक जहां एक ओर भारतीयों का राजनैतिक जीवन छिन्न-भिन्न हो रहा था वहीं दूसरी ओर सामाजिक जीवन भी अस्त-व्यस्त हो गया था। फिर भी हिन्दू समाज की धार्मिक चेतना विलुप्त नहीं हुई थी, सुसुप्त अवश्य हो गई थी। यही कारण था कि विदेशी सभ्यता और संस्कृति का बीजारोपण होने पर भी भारतीयों ने उसे जमने नहीं दिया। मुसलमानी आक्रमण के बाद देश के समन्वयवादी धर्मवेत्ता पुरुषों की प्रेरणा से एक नई मिली-जुली संस्कृति पैदा होने लगी थी। साहित्यिक अवस्था ___ साहित्यिक अवस्था की दृष्टि से इस काल का महत्त्व कम नहीं है । महापंडित राहुलजी का इस काल के सम्बन्ध में कथन है कि हमारा यह साहित्य-युग उस वक्त आरंभ होता है, जब कि बाण और हर्षवर्धन को रंगमंच छोड़े बहुत देर नहीं हुई थी। कवियों में अश्वघोष, भास, कालिदास, दण्डो, भवभूति और बाण की कृतियाँ बहुत चाव से पढ़ी जाती हैं। स्वयंभू ने इन पुराने कवियों के प्रति अपनी कृतज्ञता साफ
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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