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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों, अपभ्रंश कथाकाव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन : २६९ अवस्था का पता हर्ष को छठी परिषद से लगता है जिसका उल्लेख द्वेनसांग के जीवन-चरित में किया गया है। हर्ष प्रत्येक वर्ष प्रयाग में एक धार्मिक परिषद करता था जिसमें वह प्रत्येक सम्प्रदाय के धार्मिकों को दान दिया करता था। छठी परिषद के प्रथम दिवस हर्ष ने बुद्ध भगवान् की प्रतिमा प्रतिष्ठित की और विभिन्न प्रकार के रत्न एवं वस्त्रादि वितरित किये । दूसरे दिन उन्होंने सूर्यदेव की मूर्ति स्थापित की और दान दिया। तीसरे दिन ईश्वरदेव की मूर्ति स्थापित की और उपहार वितरित किये। चौथे दिन १०,००० बौद्ध भिक्षओं को बहमूल्य उपहार भेंट किये। इस प्रकार साधुओं-भिक्षुओं के अतिरिक्त दीन-दुःखियों को महीनों तक दान बाँटा गया। इस विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि शासन की ओर से सभी धर्मों का समान आदर था। साथ ही बौद्ध धर्म के प्रभाव को बात. भी स्पष्ट हो जाती है । तत्कालीन सामाजिक स्थिति के विषय में हेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि परम्परागत जाति-विभेद के चार वर्ग थे। ब्राह्मण सर्वाधिक पवित्र और पूज्य माने जाते थे। ब्राह्मणों के नाम के अन्त में 'शर्मा' लगा रहता था। क्षत्रियों को भी उचित आदर प्राप्त था और वे युद्धप्रिय थे। हर्ष के समय वैश्यों की स्थिति काफो सुदृढ़ थी। उन्होंने कृषि को छोड़कर व्यापार अपना लिया था। शूद्रों को दशा बहुत बिगड़ी हुई थी। इस जातिगत विभाजन के होते हुए भी समाज का नैतिक स्तर ऊचा था और शिक्षणसंस्थाएं भारतीय संस्कृति के अध्ययन· अध्यापन का कार्य करती थीं। - आठवीं शताब्दी में भारत पर विदेशी आक्रमण प्रारम्भ हो गए। भारतवासियों के लिए यह नई बात तो नहीं थी चंकि छठी शताब्दी में भारत हूणों को परास्त कर चुका था। परन्तु ७१० ई० में अरबों ने भारतीय प्रदेश सिन्ध पर विजय प्राप्त कर ली। अरबों ने सिन्ध से आगे बढ़ने की जीतोड़ कोशिश की किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। फिर भी आठवीं शताब्दी के मध्य तक अरब सौराष्ट्र और भिन्नमाल राज्यों पर आक्रमण करते रहे । अन्ततः अरबों ने भारत में प्रवेश पा लिया। इस समय भारतीय और अरबो संस्कृतियों का मिलन हुआ। सांस्कृतिक आदान-प्रदान की भूमिका में अनेक भारतीय विद्वान् अरब गये और अरब से अनेक विद्वान् अध्ययन के लिए भारत आये। संस्कृत
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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