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________________ २६६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक निधित्व करती हैं। सारे विश्व में लोककथाओं का रूप प्रायः एक जैसा ही पाया जाता है और विषयवस्तु तथा कथनशैली की दृष्टि से इनमें समान रूढ़ियों और समान अभिप्रायों का ही उपयोग हुआ है। लौकिक सौन्दर्यबोध, लोकचिन्ता की एकरूपता और सामान्य अभिव्यंजना प्रणाली विश्व की लोककथाओं में समान रूप से उपलब्ध हैं।'' लोकवार्ता और . लोककथा के संबंध में उक्त दो विद्वानों के मत उद्धृत किये गये हैं जिनके आधार पर यह स्पष्ट है कि अपभ्रंश कथाएँ लोककथाएं न होते हए भी । उनमें लोक-उपादानों की स्वीकृति है। . अपभ्रंश कथाकाव्यों में कतिपय ऐसी कथानकरूढ़ियाँ चल पड़ी थीं. जिन्हें हम उनका रूढशिल्प कह सकते हैं। अपभ्रंश काव्यों में समुद्र में नौका-भंग होना, रानी को दोहद होना, एकाधिक जन्मों का विस्तत विवरण आदि ऐसी रूढ़ियाँ हैं जिनसे कोई ही काव्य मुक्त रह सका हो । हिन्दी प्रेमाख्यानकों की रूढ़ियों के विषय में हम पहले लिख चुके हैं। अपभ्रंश कथाकाव्यों की कथानकरूढ़ियों आदि पर प्रबन्ध के षष्ठ अध्याय में विस्तृत विचार किया जायेगा। १. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, हरिभद्र के प्राकृत कथा-साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ० १४५.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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