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________________ • अपभ्रंश कथा : परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २६५ आकर प्रार्थना की कि आपके चले जाने के बाद मकरध्वज चारित्रनगर का ध्वंस कर देगा। यह सुनकर जिनेन्द्रदेव ने श्रुतलेख देकर वृषभसेन गणी को भेजा कि वह तपश्री और चारित्रनगर की भली प्रकार रक्षा करे। अपभ्रंश कथाकाव्यों के कथानकों के विवरणों से उन कथाकाव्यों की विशेषता और उनमें प्रयुक्त कथानकरूढ़ियों पर तो प्रकाश पड़ता ही है, उनके लक्षणों के निर्धारण में भी मदद मिलती है। इस विवेचन से प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर हम कह सकते हैं कि संस्कृत कथाकाव्यों और अपभ्रंश काव्यों में कुछ मौलिक अन्तर है । मुख्य रूप से कथानकरूढ़ियों के प्रयोग का अन्तर उल्लेखनीय है। संस्कृत ग्रन्थों में कथानकरूढ़ियों का प्रयोग न हुआ हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता । परन्तु अपभ्रंश काव्यों में कथानकरूढ़ियों का प्रयोग खुलकर किया गया है। संस्कृत-अपभ्रंश कथाकाव्यों को वर्णन की परिपाटी में भी शिल्पगत अन्तर प्रतीत होता है। ___ अधिकतर अपभ्रंश कथाएं या तो लोककथाओं के आधार पर रची गईं या फिर उनमें लोक-उपादानों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया। लोकवार्ता के संदर्भ में डा० सत्येन्द्र ने लिखा है-'यह एक जातिबोधक शब्द की भाँति प्रतिष्ठित हो गया है, जिसके अन्तर्गत पिछड़ी जातियों में प्रचलित अथवा अपेक्षाकृत समुन्नत जातियों में असंस्कृत समुदायों में अवशिष्ट विश्वास, रीति-रिवाज, कहानियाँ, गीत तथा कहावतें आती हैं। प्रकृति के चेतन तथा जड़ जगत् के सम्बन्ध में मानव स्वभाव तथा मनुष्यकृत पदार्थों के सम्बन्ध में भूत-प्रेतों की दुनिया तथा उसके साथ मनुष्यों के सम्बन्ध में जादू-टोना, सम्मोहन, वशीकरण, ताबीज, भाग्य, शकुन, रोग तथा मृत्यु के सम्बन्ध में आदिम तथा असभ्य विश्वास इसके क्षेत्र में आते है। और भी, इसमें विवाह, उत्तराधिकार, बाल्यकाल तथा प्रौढ़ जीवन के रीति-रिवाज और अनुष्ठान सम्मिलित हैं। वास्तव में जो कथाएँ लोक-कथाओं की पृष्ठभूमि पर खड़ी की जाती हैं उनमें लोकसंस्कृति को छाप रहती है । अतः वे तत्कालीन समाज को सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति को स्पष्ट करती हैं। संभवतः इसीलिए डा० नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं कि 'लोक-कथाएँ मानव जाति को आदिम परम्पराओं, प्रथाओं और उसके विभिन्न प्रकार के विश्वासों का वास्तविक प्रति १. डा० सत्येन्द्र, ब्रज लोकसाहित्य का अध्ययन, पृ० ४.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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