SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __ अपभ्रंश कथा : परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २६१ अन्य अपभ्रंश-काव्यों की भांति ही कवि ने परमात्मा के चरणकमलों की वन्दना की है। तदुपरान्त अपने अल्पज्ञ होने की स्वीकारोक्ति है। भावनगर नामक पट्टन में मकरध्वज नाम का राजा राज्य करता था । एक दिन राजा अपनी रति-प्रीति नामक दोनों पत्नियों सहित सभाभवन में बैठा था। वहां महामन्त्री, शल्य, गारव, कर्म, मिथ्यात्व, दोष, आश्रवादि योद्धा बैठे थे एवं अन्य असंख्य नरेश्वर उसकी सेवा में जुटे हुए थे। राजा ने गर्व-गर्जन के साथ कहा कि त्रैलोक्य की महिलाएं भी उसके वश में हैं। कामदेव के इस गर्जन पर उसकी रति-प्रीति रानियों को हंसी आ गई। राजा ने कारण पूछा। रति ने बताया कि सिद्धि रमणी नाम की स्त्री उनके वश में नहीं है। राजा को अत्यधिक विस्मय हुआ। उसने रति से कहा कि उचित-अनुचित में नहीं जानता । महिला महिलाओं का विश्वास करती है अतः प्रियतमे ! तुम जाओ और उस सिद्धि रमणी को लिवा लाओ। रति के अस्वीकार करने पर काम ने उसे बुरा-भला कहा। येन-केन-प्रकारेण रति ने दूती बनना स्वीकार किया। वह . चल दी तो मार्ग में उसे मोह मिल गया और वह उसे कामदेव के पास लौटा. लाया। मोह ने काम को समझाया कि रति को नहीं भेजना चाहिए अन्यथा उसे निर्वेद मार्ग में ही नष्ट कर देगा। सिद्धि का विवाह तो जिनेन्द्रदेव से निश्चित होगा अतः उधर, का तुम्हारा प्रयास निरर्थक है। इस पर कामदेव क्रुद्ध हो गया और अपने धनुष-बाण के साथ सिद्धि को प्राप्त करने के लिए निकल पड़ा। ___मोह ने काम को सलाह दी कि आप युद्ध करने निकले हैं तो पहले शत्र की शक्ति का तो पता लगा लीजिये। काम ने अपने पंचबाण शस्त्र रख दिये और मोह से पूछा कि जिनेन्द्र का निवासस्थान कहाँ है ? मोह ने पूरी कथा बतलाई कि जिनेन्द्र भी पहले भावनगर में रहते थे और भोगासक्त थे। परन्तु संसार में दुर्गति जानकर उन्होंने घर-द्वार सब छोड़कर चरित्रपुरी में निवासस्थान बना लिया। वहाँ वे अकेले नहीं हैं अपितु पाँच महाव्रत, सात तत्त्व, दविध धर्म, पाँच ज्ञान और सुध्यान, तप, चारित्र, क्षमा आदि सुभट उनके सहयोगी भी हैं। इस प्रकार मोहमन्त्री ने काम को जिनेन्द्र के सम्बन्ध में सब कुछ बताया । काम ने रागद्वेष को बुलाकर जिनेन्द्र के पास दूतरूप में भेजा। दूतों से जिनेन्द्र के
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy