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२५६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
चरित्र उसे सुनाया। रतिवेगा वहीं धर्म-कर्म पूर्वक अपने दिन बिताने लगी। करकंडु को जो विद्याधरी अपने घर ले गई थी उसने अपने पिता को अनुमति से करकंडु को अपना पति बना लिया। वहाँ भोग करने के बाद करकंडु नववधू के साथ रतिवेगा से आ मिले। इसके बाद उन्होंने चोल, चेर और पांड्य नरेशों पर आक्रमण किया और उन्हें परास्त किया। करकंडु ने विजय के बाद अपना पैर उनके मुकुट पर रखा'ती उसे जिनतिमा दिखाई पड़ गई। इससे करकंडु को बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसने राज्य वापिस करना चाहा परन्तु उन राजाओं ने इसे स्वीकार नहीं किया और वे तपस्या करने चले गये। करकंड़ वहाँ से लौटते हुए पुनः तेरापुर आये । यहाँ विद्याधर ने स्वयं मदनावली को लौटा दिया। वे चम्मापुरो आकर राज्य-सुख का भोग करने लगे।
एक दिन वनमाली ने करकंडु को सूचना दी कि नगर के उपवन में शीलगुप्त नामक मुनिराज का शुभागमन हुआ है। राजा ने अपने नगर में भेरो पिटवा दी। सभी पुरजनों और भक्तों के साथ वे मुनि महाराज के दर्शनों को चले। मार्ग में एक स्त्री अपने पुत्र-शोक से व्याकुल हो रही थी। उसे देखकर करकंड़ को संसार को असारता का भान होने लगा। वे उसी विषय को सोचते-सोचते मुनि के पास पहँचे। मुनि ने धर्मोपदेश दिया जिसे सुनकर उनका चित्त वैराग्योन्मुख होने लगा। करकंड ने मुनि से तीन प्रश्न किये-(१) वे इतने सुन्दर हैं परन्तु उनके हाथ में कंडु क्यों हुई? (२) उनके माता-पिता में अतिस्नेह होने पर भी उनका देहान्त क्यों हुआ? (३) खेचर ने उनको रानी मदनावलो का क्यों हरण किया? मुनिराज ने पहले प्रश्न का उत्तर दिया कि करकंडु पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठी के यहां ग्वाल थे। ग्वाल एक दिन भैंसे चराने गया था। उसने सरोवर में एक सुन्दर कमल देखा और उसे तोड़ लिया। उसी समय एक देव ने प्रकट होकर ग्वाल से कहा कि तूने यह अत्यधिक साहस का कार्य किया है। तू इस फूल को त्रिभुवन के स्वामी को चढ़ा देना अन्यथा मैं तुझे मार डालूंगा। ग्वाल ने अपने स्वामी को ही सबसे बड़ा स्वामी समझा क्योंकि उसकी दृष्टि में मालिक को सेवा में सैकड़ों लोग लगे रहते थे। यही सोचकर वह पुष्प लेकर श्रेष्ठी के सम्मुख उपस्थित हुआ और अपनी इच्छा व्यक्त की। ग्वाल से श्रेष्ठी ने कहा कि राजा मुझसे बड़ा है, अतः फूल राजा को चढ़ाना चाहिये। ग्वाल राजा के पास गया और