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________________ अपभ्रंश कथा: परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २५५ देश के पूदी पर्वत पर जिनमंदिर में एक सुन्दर जिनप्रतिमा देखी। वे * वैसी मूर्ति अपने यहां बनवाने के ध्येय से उस मूर्ति को उठाकर चले । तेरापुर पहुँचने पर वे पर्वत पर मूर्ति को रखकर जिनमंदिर के दर्शन को चले गए। लौटकर वे उस मूर्ति को उठाने लगे तो वह उनसे नहीं उठी । उन लोगों ने मुनि के उपदेश से मूर्ति को वहीं छोड़ा और स्वयं वैराग्य ले लिया। इनमें से एक भाई मरकर स्वर्ग गया और दूसरा मायाचारी होने के कारण हाथी बना । स्वर्गवासी भाई ने अपने भाई को आकर जातिस्मरण कराया जिससे वह उक्त वामी की पूजा करने आता था। फिर विद्याधर ने करकंडु को एक दूसरी गुफा बनवाने की सलाह दी । करकंडु ने वहां दो गुफाएं और बनवाई। इसके बाद करकंडु के साथ एक दुःखद घटना हुई कि उसकी रानी मदनावली को कोई विद्याधर हाथी के रूप में आकर हरण कर ले गया । करकंडु को शोकसन्तप्त देखकर पूर्व जन्म के संयोगो विद्याधर ने उसे समझाया कि उसे मदनावली अवश्य मिल जायेगी। इसके साथ ही नरवाहनदत्त का आख्यान भी करकंडु को सुनाया। इसके बाद करकंडु को विद्याधर की बातों से समाधान हो गया और वे आगे बढ़े | करकंडु को अनेक शुभ शकुन हुए । खेचर ने शकुनों का फल बताया । करकंडु बीच-बीच में रुकता हुआ सिंहलद्वीप पहुँचा । सिंहलनरेश ने करकंडु का स्वागत किया। जब करकंडु को सिंहलनरेश ने अपनी पुत्री रतिवेगा को दिखाया तो रतिवेगा करकडु को देखते ही मुग्ध हो गई। पिता ने स्थिति समझकर उसका विवाह करकंडु से कर दिया । वह अपने दहेज और रतिवेगा के साथ समुद्र मार्ग से स्वदेश रवाना हुआ। समुद्र में एक भीमकाय मच्छ ने उनकी नौका पर आक्रमण • किया। मच्छ को देखकर करकंडु मल्ल-गांठ बांध और शस्त्र से समुद्र में कूद पड़ा । मच्छ को उसने मार डाला परन्तु एक विद्याधर की पुत्री ने उसका हरण कर लिया । रतिवेगा विलाप करने लगी । मन्त्री आदि नौकाओं बेड़े किनारे लगाया । रतिवेगा ने बहुत पूजा-पाठ किया । पद्मावती देवी प्रकट हुई और रतिवेगा को उसके पति मिल जाने की बात कही। रतिवेगाने धैर्य धारण करके देवी से पूछा कि कोई गया हुआ व्यक्ति लोटकर कभी आता है ? देवी ने जिन भगवान् के भक्त अरिदमन का
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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