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________________ 4 अपभ्रंश कथा: परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २५१ वहां भूत-पिशाचों ने घोर उपसर्ग किए जिन्हें मुनि श्री विद्युच्चर के अतिरिक्त अन्य कोई सहन नहीं कर सके । अन्य मुनि ध्यान छोड़कर भाग गए । उपसर्ग में कोई कमी नहीं आई परन्तु मुनि विद्युच्चर बारह भाव - नाओं के स्मरण के साथ ध्यान में तल्लीन बने रहे। इस प्रकार समाधिमरण के बाद वे सर्वार्थसिद्धि में पहुँचे । वहाँ वे अपनी आयु पूरी करके मनुष्यजन्म लेंगे और उसी जन्म से मोक्ष जायेंगे । करकंडुचरिउ करकडुचरिउ' ११वीं शताब्दी के मध्यभाग की रचना मानी गई है । इसके रचयिता मुनि कनकामर हैं । ग्रन्थ में दस परिच्छेद हैं जिनमें करकंडु महाराज की चरित्र - वर्णन किया गया है । कथा का संक्षेप इस प्रकार है : ग्रंथारम्भ में कवि कामदेव का विनाश करने वाले परमात्मपद में लीन जिनेन्द्रदेव के चरणों का स्मरण करता है । तदनन्तर सरस्वती देवी को मन में धारण करके लोगों के कानों को सुहावने लगने वाले करकंडु राजा के चरित्र का वर्णन करता है । जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में अंगदेश की चम्पा नामक रमणीक नगरी में शत्रुओं का नाश करने वाले पराक्रमी एवं दानी धाडीवाहन नाम के राजा थे। एक दिन राजा धाडीवाहन ने कुसुमपुर नामक स्थान को गमन किया। वहाँ एक माली द्वारा पोषित . सुन्दर कन्या को देख राजा काम से पीड़ित हो गए । कुसुमदत्त नामक माली से राजा को ज्ञात हुआ कि उसने उस कन्या को नदी में बहती हुई पिटारी से प्राप्त किया था । राजा ने पेटी में रखी स्वर्णमयी अंगुली की मोहर के अक्षरों से ज्ञात किया कि कन्या कौशाम्बीनरेश वसुपाल की पद्मावती नाम की कन्या है । राजपुत्री होने से राजा ने उससे परिणय कर लिया । राजा माली को बहुत-सा द्रव्य देकर रानी के साथ अपने नगर वापिस लौट आये। एक दिन रानी ने स्वप्न में एक मस्त हाथी देखा | १. डा० हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित, कारंजा जैन सिरीज, १९३५ और द्वि० संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, १९६४.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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