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________________ अपभ्रंश कथा : परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २४९ जम्बूस्वामी अभी तक छावनी में ही थे। जैसे ही वे बाहर आये, गगनगति ने युद्ध के समाचार दिए तो जम्बस्वामी ने केरलीय सेना को पूनः एकत्रित किया और युद्ध छेड़ दिया। नरसंहार होने लगा। जम्बूस्वामी ने रत्नशेखर को द्वन्द्व युद्ध के लिए ललकारा जिससे अधिक विनाश न हो । दोनों में द्वन्द्व युद्ध हुआ। रत्नशेखर परास्त हुआ । मृगांक को बन्धनमुक्त कराकर जम्बूस्वामी केरल नगरी में गए। कुछ दिन केरल में रहने के पश्चात् मृगांक अपनी कन्या व पत्नी के साथ गगनगति विद्याधर, रत्नशेखर आदि के अनेक विमानों को लेकर मगधदेश को चल पड़े । पर्वत के निकट पहुँचते ही राजा श्रेणिक को ससैन्य भेंट हुई । राजा ने जम्बूस्वामीसहित सबका स्वागत किया। विलासवती कन्या का राजा से विवाह कर दिया गया। मृगांक व रत्नशेखर में मैत्री हो गई । सब लोग अपने-अपने निवासों को लौट गए। श्रेणिक राजा भी राजगृह की ओर चल पड़े। नगर के बाहर उपवन में सुधर्म नामक मुनि ५०० मुनियों के साथ विराजमान थे। राजा ने सभी के साथ मुनि की वंदना की। जम्बूकुमार ने प्रणाम किया। ___ सुधर्म मुनि को देखते ही जम्बूस्वामी का उनके प्रति स्नेह उमड़ पड़ा । अतः इसका कारण उन्होंने मुनि से पूछा। सुधर्म मुनि ने भवदत्तभवदेव के जन्म से लेकर दोनों के ५ भवों का वर्णन किया। उन्होंने बताया कि जम्बू पहले भवदेव था और मुनि स्वयं भवदत्त। इसके बाद . . दोनों स्वर्ग में देव हुए। वहां से विद्युन्माली देव के रूप से च्युत होकर - जम्बूस्वामी के रूप में आये और मुनि स्वयं मगधदेश के संवाहन नगर के राजा के सुधर्म नामक पुत्र हुए। इस प्रकार मुनि ने कहा कि राजा सुप्रतिष्ठ एक दिन भगवान् के समवसरण में गए और दीक्षित हो गए। मैंने भी पिता का अनुगमन किया। पिता भगवान् के चतुर्थ गणधर और मैं पांचवां गणधर हुआ। वही मैं ससंघ यहाँ आया हूँ। तुम्हारी चार देवियों ने भी चार श्रेष्ठियों के यहाँ चार सुन्दरी कन्याओं के रूप में जन्म लिया है । आज से ठोक दसवें दिन तुम्हारा उनसे परिणय हो जायेगा। यह सब सुनकर जम्बूस्वामी को वैराग्य हो गया। उन्होंने दीक्षा की अनुमति मांगी। माता-पिता एवं चारों कन्याओं के पिताओं के अनुरोध पर जम्बूस्वामी ने यह स्वीकार कर लिया कि वे एक दिन के लिए विवाह
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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