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१२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
अर्थात् कथा वह है जिसमें आरम्भ में कविवंश का संक्षिप्त वर्णन हो, मुख्यार्थ का आरम्भ कराने के लिए भूमिका में दूसरी कथा कही जाय और जिसमें परिच्छेद न हों, अथवा कहीं-कहीं पर लम्बक हों ।
आचार्यं भामह ने कथा को 'इतिहासाश्रित' माना है । आख्यायिका के विषय में भामह के मत से सुन्दर गद्य में लिखी सरस कहानी वाली रचना को आख्यायिका कहते हैं । यह उच्छ्वासों में विभक्त होती है । कथा कहने वाला नायक ही होता है । उसके बीच-बीच में वक्त्रापवक्त्र छन्द आते हैं । कन्यापहरण, युद्ध और अन्त में नायक की विजय का वर्णन होता है । दण्डी कथा और आख्यायिका में भेद स्वीकार नहीं
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करते । उनके अनुसार कथा और आख्यायिका एक ही कोटि की रचनाएँ हैं । चूँकि कहानो नायक कहे अथवा कोई अन्य, अध्यायं का विभाजन हो या न हो, उनका नाम उच्छ्वास अथवा लम्भक रखा जाये, बीच में वक्त्रापवक्त्र छन्द आवे या नहीं इन सबसे कहानी में क्या अन्तर पड़ता है ? इसीलिए इन बाह्य भेदों के कारण कथा और आख्यायिका में भेद नहीं करना चाहिए । भामह ने कथा और आख्यायिका में भेद किया है, यह पहले लिखा जा चुका है परन्तु वे कथा और आख्यायिका का प्रयोजन एक ही मानते हैं । वह प्रयोजन है- अभिनय ।
अमरकोषकार के मतानुसार आख्यायिका में ऐतिहासिक आधार होना चाहिए, परन्तु कथा कल्पना - प्रसूत होती है । आचार्य विश्वनाथ
पूर्ववृत्त को आख्यान की संज्ञा दी है । संस्कृत आख्यान - साहित्य दो भागों में विभक्त किया गया है - नीतिकथा ( Diadectic fables ) और लोककथा अथवा मनोरंजक कथा ( Fairy tales ) । प्रथम प्रकार की
१. शब्दश्छन्दोऽभिधानार्था इतिहासाश्रयाः कथाः । लोको युक्तिः कलाश्चेति मन्तव्याः काव्ययैर्वशी ॥
— काव्यालंकार, १. ९.
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२. भामह, काव्यालंकार, १. २५-२८.
३. दण्डी, काव्यादर्श, १. २३-२८
४. सर्गबन्धोऽभिनेयार्थं तथैवाख्यायिकाकथे । — काव्यालंकार, १. १८.
५. आख्यानं पूर्ववृत्तोक्तिः ।