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________________ प्रास्ताविक : ११ तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् । श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥' श्रीमद्भागवत में हो 'वार्ता' और 'कथा' शब्द समान अर्थ में प्रयुक्त हए हैं। संस्कृत-आचार्यों ने महाकाव्य, कथा और आख्यायिका में भेद किया है । दंडी का कथन है कि कथा गद्य में हो निबद्ध होनी चाहिए। साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ का मत है कि कथा में वस्तूवर्णन सरस हो और वह गद्य में ही रचित हो। कहीं पर इसमें आर्या तथा कहीं वक्रापवक्र छन्द भी आते हों। कथा के प्रारम्भ में नमस्कार एवं दुर्जनादि के चरित्र पद्यमय वणित होते हैं। जैसे कादम्बरी आदि : कथायां सरसं वस्तु गद्येरेव विनिर्मितम् ।। क्वचिदत्र भवेदार्या क्वचिद्वक्रापवक्रके। आदौ पद्यैनमस्कारः खलादेर्वृत्तकीर्तनम् ॥ यथा-कादम्बर्यादिः। अग्निपुराण में गद्य-काव्य के पाँच भेद कहे गये हैं-आख्यायिका, कथा, खंडकथा, परिकथा और कथानिका। उसके अनुसार आख्यायिका वह है जिसमें लेखक के वंश की कुछ विस्तार से प्रशंसा हो, जिसमें कन्याहरण, संग्राम, विप्रलम्भ आदि विपत्तियों का वर्णन हो, जिसमें रीति और वृत्ति अति प्रदीप्त शैली में हों, जिसमें उच्छ्वास' नामक परिच्छेद हों, जिसमें चूर्णक शैली का बाहुल्य हो एवं वक्त्र और अपवक्त्र नामक श्लोक हों। इसके विपरीत कथा का लक्षण इस प्रकार किया गया है : श्लोकैः स्ववंशं संक्षेपात् कवियत्र प्रशंसति । मुख्यस्यार्थावताराय भवेद् यत्र कथान्तरम् ॥ परिच्छेदो न यत्र स्याद् भवेद् वा लम्बकैः क्वचित् । सां कथा नाम तद्गर्भ निबध्नीयाच्चतुष्पदीम्॥ १. श्रीमद्भागवत, १०. ३१. ९. २. यत्र भागवती वार्ता तत्र भक्त्यादिकं व्रजेत् । कथाशब्दं समाकर्ण्य तत्त्रिकं तरुणायते ॥ श्रीमद्भागवत (माहात्म्य), ३. ९. ३. आचार्य विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, षष्ठोच्छ्वास, श्लो० ३३२-३३. ४. अग्निपुराण, ३६६. १२. ५. वही, ३३६. १३-१४. ६. वही, ३३६. १५-१७.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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