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________________ २४४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक राजदूत बनाकर पवनवेग के पास भेजा। परन्तु वे अपने कार्य में असफल रहे। अतः युद्ध हआ और पवनवेग मारा गया। राजकूमारियों से शादो को और उनके भाइयों को राज्य दिलाकर नागकुमार पांड्या के राज्य में लौट आया ॥ ८॥ - नवीं और अन्तिम संधि में नागकुमार आन्ध्र के दन्तीपुर नगर में पहुंचते हैं । वहाँ चन्द्रगुप्त को पुत्रो रत्नमंजूषा से उनका विवाह होता है। वहाँ से वे त्रिभुवनतिलक जाते हैं और लक्ष्मीमति का वरण करते हैं, जो . उन्हें सर्वाधिक आकृष्ट करती है। मुनि पिहिताश्रव इसो अवसर पर वहाँ. आते हैं। नागकुमार उनके दार्शनिक और धार्मिक व्याख्यानों.को सूतता है। मुनि से राजकुमार ने अन्तिम पत्नी के आकर्षण का कारण पूछा। इसके उत्तर में मुनि नागकुमार के पूर्वजन्म की कथा सुनाते हैं। ऐरावत :. देश में वीतशोकपुर नाम का एक नगर था। वहाँ धनदत्त नाम का सेठ और धनेश्वरी नाम की उसकी पत्नी थी। उसके पुत्र,नागदत्त ने वहीं के एक सेठ की पुत्री नागवसु से विवाह किया। नागदत्त ने फाल्गुन माह की पंचमी का व्रत लिया। व्रत रखने पर दिन का समय तो पूजनादि में व्यतीत हो गया परन्तु अर्ध रात्रि होते-होते उसे गर्मी-प्यास लगी। व्रतभंग उसने नहीं होने दिया परन्तु मर गया और मरकर प्रथम स्वर्ग में देव हुआ। मुनि ने आगे कहा कि नागदत्त ही नागकुमार के रूप में जन्मा और लक्ष्मीमति उसकी पूर्वभव की पत्नी ही है अतः प्रगाढ़ प्रेम हुआ। मुनि इसके बाद व्रत पालने का. ढंग बताते हैं। ऐसे ही अवसर पर मन्त्री नयनधर आते हैं और नागकुमार को वापिस कनकपुर ले जाते हैं। पिता स्वागत करते हैं और राज्यतिलक करते हैं। राज्यारूढ़ होते ही नागकुमार व्याल द्वारा अपनी समस्त विवाहिताओं को बुलवा लेते हैं। उन सबके साथ वे राज्योपभोग करते हैं। राजा जयन्धर और पृथ्वीदेवी वैराग्य यापन करते हैं। नागकुमार बहुत काल तक राज्य करते हैं और बाद में व्याल, महाव्याल, अचय और अभय के साथ मुनिदीक्षा ले लेते हैं। नागकुमार को श्रीपंचमी के व्रत का फल मिलता है। जम्बूसामिचरिउ जैन वाङ्मय में जम्बूस्वामी सम्बन्धी विपुल सामग्री उपलब्ध है। जम्बूस्वामी का चरित्र जैनों में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और स्तुत्य रहा है ।
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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