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________________ २३८ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक से पत्रोत्पत्ति का आशीर्वाद पाया। अतः प्रसन्नतापूर्वक वह महल में वापिस आ गई। उद्यान में जलक्रीड़ा आदि के उपरान्त राजा ने पथ्वीदेवी को उद्यान में खोजा। राजकर्मचारी द्वारा जानकर जिनमन्दिर और महल में भी खोजा। रानी पुत्र का आशीर्वाद पाकर अपनी ईर्ष्या को भल गई और राजा के आते ही मन्दिर को घटना बताई। राजा पूनः रानी को लेकर जिनमन्दिर में मुनिराज के समीप गए । मुनि ने भावी' ' पुत्र के विषय में और भी भविष्यवाणी की कि पुत्र उत्पन्न होगा। जिनमंदिर का लौहद्वार बन्द रहेगा परन्तु बच्चे के पैर के स्पर्श से खुल जाएगा। फिर बच्चा कुएं में गिर जाएगा, उसकी रक्षा एक नाग करेगा। : समय पर पुत्र उत्पन्न हुआ। बच्चे के बड़े होने पर वे जिनमंदिर गए परन्तु उसके दरवाजे बन्द थे अतः बड़ी निराशा हुई। परन्तु बच्चे का. पैर लगते ही दरवाजे खुल गए। राजा जिनेन्द्र-पूजन में व्यस्त थे । परिचारिकाएं बालक को उद्यान में ले जाती हैं और एक परिचारिका की गोद से वह कुएँ में गिर जाता है। पता चलते हो मां भी कुएं में कूद पड़ती है। नाग रक्षा करता है अतः उसका नाम नागकुमार रखा जाता है। बड़े होने पर नागकुमार को नाग अपने घर ले जाता है । नाग ने राजकुमार को राजनीति के साथ विविध कलाओं और विज्ञान को शिक्षा दी । अपनी शिक्षा के बाद राजकुमार अपने पिता के घर आ गए। एक बार पंचसुगन्धिनी महल में एक दिव्य बांसुरीवादक को खोज में पहुंची और उसने कहा कि वह उसी पुरुष के साथ अपनी मनोहारी एवं किन्नरी कन्याओं का विवाह करेगी। नागकुमार कला में श्रेष्ठ उतरता है और दोनों कन्याओं का वरण करता है। एक दिन नागकुमार अपनी पत्नियों के साथ जल-क्रीड़ा के लिए गया। पीछे से उसको माँ आभूषण और कपड़े देने के लिए गई । विशालनेत्रा को अवसर मिल गया और उसने राजा के कान भर दिये कि पथ्वीदेवी अपने प्रेमी से मिलने गई है । राजा ने पीछा किया परन्तु विशालनेत्रा झूठो प्रमाणित हुई। अतः उसे राजा ने फटकारा । राजा को सपत्नियों को ईर्ष्या से भय हो। गया कि नागकुमार का जीवन संकट में न पड़ जाए। अतः इस ध्येय से राजा ने पृथ्वीदेवी को कहा कि वह अपने पुत्र को बाहर भ्रमण पर जाने दे। रानो ने इसे अपना अपमान समझकर अपने पुत्र से कहा कि एक हाथी पर बैठकर वह राजधानी का भ्रमण करे । राजा को यह बात बहुत
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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