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________________ २.३६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक को भूनकर जसवई ने ब्राह्मणों को खिलाया । अगले जन्म में चन्द्रमती बकरी और यशोधर बकरा बना । इसके बाद वे भैंस, मुर्गा-मुर्गी के जन्मों में भी उत्पन्न हुए । अन्त में राजा द्वारा मारे जाने पर उसके पुत्र-पुत्री के जोड़े के रूप में पैदा हुए । पुत्र का नाम अभयरुचि और पुत्री का नाम अभयमति हुआ । एक बार राजा जसवई ५०० कुत्तों के साथ जंगल में शिकार खेलने गया । वहाँ उसने एक जैन मुनि सुदत्त को देखा तथा उनके ऊपर कुत्तों को छोड़ दिया । परन्तु कुत्ते अपनी गर्दन झुकाकर खड़े हो गए । अतः जसहर ने अपनी तलवार से मुनि को मारने का विचार' किया। उसके एक व्यापारी मित्र ने उसे निरपराध मुनि को मारने से रोका। जसवई ने अपने पापों के प्रायश्चित्तस्वरूप मुनि के सामने अपनी गर्दन काटने का विचार किया। मुनि राजा के अन्तर्भावों को समझ गए और उसे इस प्रकार के कार्यों से विरत रहने को कहा। राजा को यह देखकर कि मुनि दूसरे के अन्तःकरण की बात जानते हैं - आश्चर्य हुआ । राजा ने अपने माता-पिता और दादी के जन्मों के विषय में पूछा। इस पर मुनि ने राजा को उनके विभिन्न जन्मों की कहानी सुनाते हुए कहा कि उसके पिता और दादी उसके पुत्र अभयरुचि और पुत्री अभयमति के रूप में पैदा हुए हैं । उसकी मां पाँचवें नरक में है । मुनि से सब बातें जानकर राजा जसवई ने महल छोड़कर साधु बनने का निश्चय किया । अभयरुचि और अभयमति ने भी साधु बनना चाहा परन्तु अवस्था में छोटे होने के कारण सुदत्त मुनि ने उन्हें क्षुल्लक ही रहने को कहा। इस प्रकार अभयरुचि ने राजा मारिदत्त को पूरी बात समाप्त करते हुए कहा कि हम क्षुल्लक नगर में घूम ही रहे थे कि आपके आदमियों द्वारा पकड़ लिये गये और यहाँ लाये गये । इस वृत्तान्त को सुनने के बाद राजा मारिदत्त और देवी चन्द्रमारी ने क्षुल्लकों से प्रणिपातपूर्वक जैनधर्म की दीक्षा देने का आग्रह किया । अभरुचि ने कहा कि दीक्षा हमारे गुरु ही दे सकते हैं । इसी अवसर पर सुदत्त भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने मारिदत्त एवं दूसरों के पूर्वभवों की बातें बताईं । अन्त में मारिदत्त एवं भैरवानन्द को भी जैनधर्म में दीक्षित किया। इस प्रकार अभयरुचि ने मुनि की और अभयमति ने साध्वी की पदवी प्राप्त की तथा पवित्र जीवन बिताते हुए ईशान स्वर्ग में देव हुए।
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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