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२३० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक रखा गया। उधर धनश्री हस्तिनापुर के राजा इभ्यपति शंख और उनकी रानी शीलवतो की पद्मश्री नाम की पुत्री हुई । जैसे-जैसे यह बड़ी होती, गई इसके सौन्दर्य की कीर्ति चारों ओर फैलती गई। बसन्त माह का आगमन हुआ। पद्मश्री अपने अपूर्वश्री नामक उद्यान में गई। समुद्रदत्त भी वहाँ पहँचा और दोनों की दष्टियाँ मिल गई। दोनों एक-दूसरे पर मुग्ध हो गए। दोनों की प्रेमविह्वलता विवाहो-' परान्त समाप्त हुई। ___ समुद्रदत्त अपनी पत्नी पद्मश्री के साथ आनन्दमयः दिवस बिताने. लगा। आठ वर्षों के बाद वराहदत्त नामक पत्रवाहक ने समद्रदत्त की माता की ओर से पत्र दिया। माता अपने पुत्र को देखने के लिए व्याकुल थी। उस समय पद्मश्री अपने पिता के घर थो । अतः समुद्रदत्त ने दूत. को वापिस भेज दिया और स्वयं पत्नी को लेने हस्तिनापुर गया। पूर्वजन्म के दोष से केलिप्रिय पिशाच ने पद्मश्री और समुद्रदत्त के प्रेम में अन्तर डाल दिया। समुद्रदत्त को यह विश्वास हो गया कि पद्मश्री परपुरुष में आसक्त है । समुद्रदत्त को पद्मश्री सब भाँति विश्वास दिलाती है कि सब झूठ है । फिर भी समुद्रदत्त विश्वास नहीं करता।
पद्मश्री हतप्रभ हो जाती है और विलाप करती है परन्तु समुद्रदत्त उसे छोड़कर घर चल देता है । समुद्रदत्त कौशलपुरी के एक व्यापारी की पूत्री कांतिमती से विवाह कर लेता है, । कांतिमती की एक कीतिमती बहिन थी जिसका विवाह समुद्रदत्त के भाई उदधिदत्त से होता है। पद्मश्री के पिता को समुद्रदत्त के विवाह का पता चला तो वे पुत्री के. जन्म से दुःखी हुए। पद्मश्री को विमलशीला नामक साध्वी ने धर्मोपदेश दिया। उसके प्रभाव से पद्मश्री व्रतादि करने लगी। बाद में वे दोनों कांतिमती
और कीर्तिमती के घर पहुँची। वहाँ पद्मश्री पर चोरी का कलंक लगा। फिर भी कठिन तपश्चर्या करके पद्मश्री ने मोक्षलाभ लिया। भविसयत्तकहा
दशमी शताब्दी के कवि धनपाल धक्कड़ ने जैनधर्म के श्रुतपंचमी व्रत के माहात्म्य-निर्देश के लिए इस कथा-काव्य' को रचना को । प्रारम्भ १. सी० डी० दलाल और पी० डी० गुणे द्वारा संपादित, गा० ओ० सिरीज
में १९२३ में प्रकाशित.