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२२६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
१. प्रबन्ध काव्य के रूप में शलाका पुरुषों के चरित । २. शलाका पुरुषों में से किसी एक का विस्तृत चरित । ३. रोमाण्टिक धर्मकथाएँ। ४. अर्ध-ऐतिहासिक प्रबन्ध कथाएं । ५. उपदेशप्रद कथाओं के संग्रह-कथाकोश ।
डा० उपाध्ये ने यह वर्गीकरण समग्र जैन कथा-साहित्य को दष्टि में रखकर प्रस्तुत किया है किन्तु यही वर्गीकरण अपभ्रंश कथा-साहित्य पर भी पूर्णतः लागू हो सकता है। विशेष द्रष्टव्य यह है कि अपभ्रंश रचनाकारों ने मिश्रित अथवा मिश्रकथा को प्रधानता दो अथवा यों कहें कि अपभ्रंश कथाकाव्यों में मिश्र ढंग की कथाएं अधिक हैं। प्राकृत कथासाहित्य में समराइच्चकहा को हरिभ्रद्र ने धर्मकथा माना है परन्तु जब हम उन्हीं के बताए मिश्रकथा के लक्षणों की कसौटी पर इस कथा को . कसते हैं तो यह मिश्रकथा ही ठहरती है।' कहने का तात्पर्य यह है कि लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही दृष्टियों से मिश्रकथाको प्रशंसा की जा सकती है। इसका एक कारण यह है कि इस प्रकार की कथा में लेखक को पात्रों को अभिव्यक्तियों अथवा इसके मिस अपने अनुभवों को अभिव्यक्त करने का अवसर रहता है। अपभ्रंश कथाकाव्यों के अध्ययन से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। अपभ्रंश की जिन रचनाओं को हमने कथाकाव्यों को कोटि में स्वीकार किया है उनके कथानकों को संक्षिप्त रूप में यहाँ प्रस्तुत करेंगे। इन कथानकों से जहाँ हम.एक ओर ( उनमें वर्णित विषयों के आधार पर ) उनको कथात्मकता से परिचित होंगे वहीं दूसरी ओर हमें हिन्दी प्रेमाख्यानकों पर उनके प्रभाव को बात को समीक्षात्मक दृष्टिकोण से विचार करने का अवसर भी मिलेगा। लीलावईकहा
इस कथा के रचनाकार कवि कोळहल ( कौतूहल ) हैं। ग्रन्थ की रचना ई० सन् आठवीं शताब्दी के लगभग हुई। कौतूहल ने अपने वंश १. समराइच्चकहा, पृ० २. २. डा० ए० एन० उपाध्ये द्वारा संपादित, सिंघी जैन ग्रं० बम्बई से
१९४९ ई० में प्रकाशित. ३. डा. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, प० ५२९. .