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अपभ्रंश कथा: परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २२१
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यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसार्थसंसिद्धिरञ्जसा सद्धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता ॥ १२० ॥ सद्धर्मकथा के द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग होते हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छ: द्रव्य हैं; ऊर्ध्व, मध्य और पाताल ये तीन लोक क्षेत्र हैं । जिनेन्द्र देव का चरित्र ही तीर्थ है; भूत, भविष्य और वर्तमान तीन प्रकार के काल हैं; क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं; तत्त्वज्ञान का होना फल कहलाता है ओर वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं । उक्त सात अंग जिस कथा में पाये जायें उसे सत्कथा कहते हैं :
द्रव्य क्षेत्र तथा तीर्थं कालो भावः फलं महत् । प्रकृतं चेत्यमून्याहुः सप्ताङ्गानि कथामुखे ॥ १२२ ॥ द्रव्य जीवादि षोढा स्यात्क्षेत्रं त्रिभुवनस्थितिः । जिनेन्द्रचरितं तीर्थं कालस्त्रेधा प्रकीर्तितः ॥ १२३ ॥ प्रकृतं स्यात् कथावस्तु फलं तत्त्वावबोधनम् । भावः क्षयोपशमजस्तस्य स्यात्क्षायिकोऽथवा ॥ १२४ ॥ इत्यमूनि कथाङ्गानि यत्र सा सत्कथा मता । यथावसरमेवैषां प्रपञ्चो दर्शयते ॥ १२५ ॥
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कथा के लक्षणों के साथ-साथ ही इन आचार्यों ने वक्ता और श्रोता "के लक्षण भी बताये हैं। कथा का विस्तार न तो अधिक हो और न अति संक्षेप हो तो वह कथा महान् अर्थ वाली कथा होती है :
महार्थापि कथा अपरिक्लेशबहुला कथयितव्या ।
उद्योतनसूरि ने कथा के पांच भेद स्वीकार किये हैं: सकलकथा, 'खंडकथा, उल्लापकथा, परिहासकथा और संकीर्णकथा - ताओ पुण पंच 'कहाओ । तं जहा । सयलकहा, खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा, तहा वरा कहियति संकिण कहत्ति ।
१. जिनसेन, आदिपुराण, पृ० १८.
२. व्ही.
३. वही, पृ० १८ - २०.
४. दशवैकालिक सूत्र : हरिभद्रवृत्ति, पृ० २३०.
५. उद्योतनसूरि, कुवलयमाला, पृ० ४.