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________________ २२० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक अनुसार धर्मकथा वह है जिसमें क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, अणुव्रत, दिव्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोग- परिभोग, अतिथिसंविभाग, अनुकम्पा तथा अकाम निर्जरा के साधनों का प्रचुरता से वर्णन हो : जा उण धम्मोवायाणगोयरा खमामद्दवज्जवमुत्तितवसंजमसच्च सोयाचिणभचेरपहाणा अणुव्वयदि सिदेसाणत्थदण्डविरईसामाइयपोसहोवयासोव भोगपरिभोगातिहिसंविभागकलिया अणुकम्पाकामनिज्जराइपयत्थसंपउत्ता, सा धम्मकह त्ति । " fareer धर्म, अर्थ और काम त्रिवर्गों का कथन करने वाली तथा उदाहरण, हेतु और कारणों से पुष्ट होती है : जा उण तिवग्गोवायाण संबद्धा haar कहागन्थत्थवित्थ रवि रइया लोइयवेयसमयपसिद्धा ज्याहरणहेउकारणोववेया, सा संकिण्ण कह ि वुच्चइ | आचार्य जिनसेन ने कथा के सद्धर्मकथा या सत्कथा एवं विकथा ये दो भेद माने हैं। उनका कथन है कि मोक्ष पुरुषार्थ के लिए उपयोगी होने से धर्म, अर्थ तथा काम का कथन करना कथा कहलाती है । जिसमें धर्म का विशेष निरूपण होता है उसे बुद्धिमान् सत्कथा कहते हैं । धर्म के फलस्वरूप जिन अभ्युदयों की प्राप्ति होती है उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं अतः धर्म का फल दिखाने के लिए अर्थ और काम का वर्णन करना भी कथा कहलाती है । यदि यह अर्थ और काम की कथा धर्मकथा से रहित हो तो विकथा ही कहलायेगी जो मात्र पापाश्रव का कारण होती है। जिससे जीवों को स्वर्गादि अभ्युदय तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है वास्तव में वही धर्म कहलाता है, उससे सम्बन्ध रखने वाली कथा को सद्धर्मकथा कहते हैं : पुरुषार्थोपयोगित्वात्त्रिवर्गकथनं कथा । तत्रापि सत्कथां धर्म्यामामनन्ति मनीषिणः ॥ ११८ ॥ तत्फलाभ्युदयाङ्गत्वादर्थकामकथा कथा | farथैवासाव पुण्यात्रव कारणम् ॥ ११९ ॥ अन्यथा १. वही, पृ० ३. २ . वही.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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