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________________ २१८ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक इसी प्रकार संवेगिनी कथा आत्मशरीर संवेगिनी, परशरीर संवेगिनी, इहलोक संवेगिनी और परलोक संवेगिनी के भेद से चार प्रकार की होती है। शुक्र, शोणित, मांस, वसा, मेदा, अस्थि, स्नायु, चर्म, केश, रोम, नाक, दन्त आदि संघातस्वरूप मलमत्रयुक्त अपने शरीर की अशुचिता का वर्णन कर विरक्ति उत्पन्न करना आत्मशरीर संवेगिनी. कथा है। इसी प्रकार दूसरे व्यक्ति के शरीर की ( उक्त पदार्थों द्वारा) अशुचिता का वर्णन करना परसंवेगिनी कथा है। संसार को असारता का वर्णन करके विरक्ति का कथन लोक संवेगिनी कथा के अन्तर्गत आता है। देवादि भी कषायों वश दुर्गति को पाते हैं-इस प्रकार के कथन से वैराग्य की प्रभावशाली व्याख्या परलोक संवेगिनी कथा है : : : आयपरसरीरगया इहलोए चेव तहय परलोए। . एसा चउन्विहा खलु कहा• उ संवेयणी होइ ॥ वीरियविउव्वणिढ्ढी नाणचरणदसणाण तह इड्ढी। उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ संवेयीइ रसो॥' तंजहा-आयसरीरसंवेयणी परसरीरसंवेयणी इहलोयसंवेयणी परलोयसंवेयणी, तत्थ आयसरीरसंवेयणी जहा जमेयं अम्हच्चयं सरीरयं एवं सुक्कसोणियमंसवसामेदमज्जठिण्हारचम्मकेसरोमणहवंतअंतादि• संघायणिप्फण्णतणेण"""एसा परलोयसंवेयणी गयत्ति ।२ । उद्योतनसूरि ने भी धर्मकथा के आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी चार भाग किये हैं। आक्षेपिणी मनोनुकूल तथा विक्षेपिणी मन के प्रतिकूल होती है। संवेदिनी ज्ञानोत्पत्ति का कारण बनती है और निर्वेदिनी से वैराग्योत्पत्ति होती है : तत्थ अक्खेवणी मणोणुकूला, विक्खेवणी मणो-पडिकूला, संवेग-जणणी णाणुप्पत्ति-कारणं, णिव्वेय-जणणी उण वेरगुप्पत्ती। भणियं च गुरुणा सुहम्म-सामिणा। अक्खेवणि अक्खित्ता पुरिसा विक्खेवणीए विक्खित्ता। संवेयणि संविग्गा णिविण्णा तह चउत्थीए ॥ १. वही, पृ० २१९. २. वही, पृ० २२३-२४. . ३. उद्योतनसूरि, कुवलयमाला, पृ० ४.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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