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________________ - २१० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक अधीन है अथवा वह नगर अमुक राजा का है इत्यादि वर्णन करना जैनशास्त्रों में राजाख्यान कहा गया है। जो इस अपार संसार से पार करे उसे तीर्थ कहते हैं, ऐसा तोर्थ जिनेन्द्र भगवान् का चरित्र ही हो सकता है अतः उसका कथन करने को तीर्थाख्यान कहते हैं । जिस प्रकार का तप और दान करने से जीवों को अनुपम फल की प्राप्ति होती हो उसका कथन करना तपदानकथा कहलाती है । नरकादि चार गतियों का कथन करने को गत्याख्यान कहते हैं । संसारी जीवों को पुण्य-पाप का जैसा फल मिलता है उसका मोक्षप्राप्ति पर्यन्त वर्णन करना फलाख्यान कहलाता है : लोकोद्देशनिरुक्त्यादिवर्णनं । यत्सविस्तरम् । कायानं तदानातं विशोधितदिगन्तरम् ॥ ४ ॥ तदेकदेशदेशाद्विद्वी पाध्याविप्रपञ्चनम् देशाख्यानं तु तज्ज्ञेयं तज्ज्ञः संज्ञानलोचनैः ॥ ५ ॥ भरतादिषु वर्षेषु राजधानीप्ररूपणम् । पुराख्यानमितीष्टं तत् पुरातनविदां मते ॥ ६ ॥ अमुष्मिन्नधिदेशोऽयं नगरञ्चेति तत्पतेः । आख्यानं यत्तदाख्यातं राज्याख्यानं जिनागमे ॥ ७ ॥ संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते । चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिस्तीर्थसंकथा ॥ ८ ॥ याद्दशं स्यात्तपोदानमनीदृशगुणोदयम् । कथनं तादृशस्यास्य तपोदानकथोच्यते ॥ ९ ॥ नरकादि प्रभेदेन चतस्रो गतयो मताः । तासां संकीर्त्तनं यद्धि गत्याख्यानं तदिष्यते ॥ १० ॥ पुण्यपापफलावाप्तिर्जन्तूनां यादृशी भवेत् । तदाख्यानं फलाख्यानं तच्च निःश्रेयसावधि ॥ ११ ॥ पुराण के वर्ण्य विषय से उसके क्षेत्र की व्यापकता पर तो प्रकाश पड़ता ही है, उससे कथाकाव्य के क्षेत्र का भी ज्ञान होता है । पहले लिखा जा चुका है कि हिन्दू धर्म की तरह १८ पुराण और १८ उपपुराणों की संख्या जैनों में निर्धारित नहीं है, फिर भी उनका पुराण- साहित्य संस्कृत, १.. वही, ४. ४-११.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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