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________________ अपभ्रंश कथा : परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २०५ पहुँचा। वहाँ उसकी एक मालिन से भेंट हुई। जोगी को उसने बत्तीस लक्षणों से युक्त पाया अतः अपने घर में स्थान दिया। मालिन ने उसे बताया कि राजकुमारी देवी के मंदिर में नर-बलि चढ़ाती है। अतः वह पहले से ही देवी के मंदिर में छिप गया। राजकूमारी जब देवी के मंदिर में गई तो उसने नरबलि को हेय बताया। राजकुमारी ने समझा कि देवी का आदेश है अतः उसने बलि न चढ़ाने की शपथ ली। मन्त्री ने नगर में अपने को एक बड़ा चित्रकार घोषित कराया। राजकुमारी को जब इसकी सूचना मिली तो उसने चित्रकार को बुलवा भेजा। यह गया और राम, कृष्ण के चित्रों को दिखाने के बाद नरवाहन का चित्र दिखाते हुए उसके गुणों का बखान किया। कुमारी उस चित्र पर मोहित हो गई। मन्त्री ने राजकुमारी से कहा कि वह एक माह के अन्दर उसकी भेंट राजा से करा देगा। इसी वचन के आधार पर दोनों का विवाह हो गया। राजा नरवाहन और हंसाउली सुखपूर्वक दिवस व्यतीत करने लगे। समयानुसार हंसाउली के दो पुत्र उत्पन्न हुए । दोनों पुत्र अत्यधिक बलिष्ठ और सुन्दर थे। वे जंगल में शिकार आदि भी खेलने जाते। नरवाहन को दूसरी रानी लोलावती हंसराज के रूप पर आसक्त हो गई। रानी ने हंसराज से अपना प्रस्ताव बताया। हंसराज सुशील था। उसने कहा कि आप तो मेरी माता हैं । इस पर लोलावती ने राजा से शिकायत कर दी कि हंसराज ने उसे अपमानित किया है। राजा ने उसकी शिकायत पर दोनों पुत्रों को निष्कासित कर दिया । मार्ग में चलते-चलते हंसराज को प्यास लग गई। वच्छराज जल लेने चला गया। लौटकर आया तो उसने हंसराज को सर्पदंश से मृत पाया। वह बहुत दुःखित हुआ और समीप के नगर में उसका अन्तिम संस्कार करने के लिए उसे ले गया। वच्छराज को नगर के कोटपाल ने पुत्र न होने के कारण पुत्ररूप में स्वीकार किया। उसी नगर में अरिमर्दन नामक राजा था। बच्छराज को उसने नगर में भ्रमण करते समय देख लिया। राजा ने उसे बत्तीस लक्षणों से पूर्ण पाकर विचार किया कि वह उसकी पुत्री त्रिलोचना के लिए उपयुक्त वर होगा । वच्छराज ने जब विवाह की बात सुनी तो वह नगर छोड़कर चला गया। इस व्यवहार से कुमारी त्रिलोचना को महान् विरह सहना पड़ा । अन्त में किसी प्रकार हंसराज को उसने जीवित पा लिया। इस बीच उन्हें अनेक कष्टों से गुजरना पड़ा। बाद में दोनों ने विवाह कर लिये और अपने
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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