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अपभ्रंश कथा: परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २०३
को भी रासा कहते हैं । जैसे यदि कई आदमी झगड़ रहे हों या वादविवाद कर रहे हों तो तीसरा आदमी आकर पूछेगा - 'कांई रासो है' । लंबी चौड़ी वार्ता को भी रासो और रामायण कहते हैं | बकवाद को भी रामायण और रासा ढूंढाड़ में बोलते हैं। 'कांई रामायण है' क्या बकवाद है । यह एक मुहावरा है । ऐसे ही 'रासा' भी इस विषय में बोला जाता है ।" इसी प्रसंग में पंडित मोहनलाल विष्णुलाल जी पंड्या का मत भी उद्धरणीय है- 'हिन्दी 'रासो' शब्द संस्कृत 'रास' अथवा 'रासक' से है और संस्कृत भाषा में 'रास' के शब्द, ध्वनि, क्रीड़ा, श्रृंखला, विलास, गर्जन, नृत्य और कोलाहल आदि के अर्थ और 'रासक' के काव्य अथवा दृश्यकाव्यादि के अर्थ परम प्रसिद्ध हैं। यह 'रासो' शब्द आजकल की ब्रजभाषा में भी अप्रचलित नहीं है, किन्तु अन्वेषण करने से वह काव्य के अर्थ के अतिरिक्त अन्य अनेक अर्थों में भी प्रयोग होता हुआ दृष्टि आवेगा, जैसे – हमने चौदे के गदर को एक 'रासो' जोड्यो है - कल बहादुर सिंघ जी की बैठक में बंदर ने गदर कौ रासो गायो हौ - फिर मैंने भरतपुर के. राजा सूरजमल को रासो गायो सो सब देखते ही रह गए - अजी ये कहा रासो है - मैं तो कल्ल एक रासे में फंस गयो यासूं तुमारे वहां नांय आय . सक्यो - अजी राम गोपाल बड़ी दिवारिया है, वाके रासे में फंस के रूपैया मत बिगाड़ दोजो | हम नै आज दिन को रासो नियराय दीनौ है - देखो साब ! रासे के संग रासौ है, बुरी मत मानी - तथा लुगाइयें भी गाया करती हैं : :
गीत - मतकाची तोन्हं रखियो धानी नान्ह करूंगी अंत रासा । गुर राख, पकावा, मत काचा । इत्यादि ॥ ॥ जिव लोगन की 'रास' उठेगी तौन्ह के खाक उठावेगा । हलजोत नहीं पछतावेगा । इत्यादि ॥ २ ॥
जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि रास, रासो, रासक आदि का प्रारम्भिक रूप जो भी रहा हो परन्तु बाद में उसका प्रचलन कथाकाव्यों के रूप में रूढ़ हो गया। रासो संज्ञक अधिकांश रचनाओं को कथाकाव्यों की श्रेणी में रखा जा सकता है। पृथ्वीराजरासो को आचार्य हजारीप्रसाद
१. सरस्वती, भाग ३, पृ० ९८.
२. हिन्दी साहित्य का अतीत, पृ० ५३ से उद्धृत.