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२०२ : अपभ्रंश कथाकाब्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
रासक को शैली मलतः गेय शैली हो थी। संभवतः इसीलिए कुछ विद्वानों ने रासक की व्युत्पत्ति रास से मानी है। इस संदर्भ में पंडित विश्वनाथप्रसाद मिश्र का कथन है-'रास शब्द का विशेष आग्रह हो तो स्वार्थ में 'क' मानकर इस रासक को नाट्यरासक या रासक नामक उपरूपकों से पृथक् श्रव्यकाव्य का बोधक मान लिया जा सकता है। रासक शब्द को इसलिए भी ग्रहण करना चाहिए कि रासो शब्द के विभिन्न रूपों को निष्पत्ति रासक से ही सुभीते के साथ होती है।" यों रास का उत्सवरूप में प्रयोग भागवतपुराण में मिलता है :
तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीडामनुवतैः। . स्त्रीरत्नैरन्वितः प्रीतैरन्योन्याबद्धबाहभिः। रासोत्सवः संप्रवृत्तो गोपीमण्डलमण्डितः।
योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्यो द्वयोर्द्वयोः॥ उपर्युक्त विवेचन से हम इस मन्तव्य पर पहुँचे हैं कि प्रारम्भिक अवस्था में रासक गेय रूपक था और कालान्तर में इसने ही नाट्यरासक का रूप ग्रहण कर लिया। यहीं से इसमें विकासोन्मुख धारा का प्रवाह हुआ। आगे चलकर इसमें काफी परिवर्तन आ गया। 'वस्तुतः रासक काव्य परम्परा पर मध्यकालीन चरितकाव्यों खासतौर से संस्कृत के ऐतिहासिक चरितकाव्यों का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि इसका रूप ही बदल गया।'' हमारा संकेत इसी बदले हुए रूप की ओर है कि इस प्रकार के 'रासो' नामक काव्य कथाकाव्यों के अन्तर्गत ही आते हैं। श्री अगरचन्द नाहटा का भी कथन है कि 'पीछे रास, रासु अथवा राउस शब्द प्रधानतया कथाकाव्यों के लिए रूढ़-सा हो गया और रसप्रधान रचना रास मानी जाने लगी।"
मारवाड़ी भाषा में रासो का भिन्न अर्थ है । मुंशी देवीप्रसाद जी के अनुसार 'रासे के मायने कथा के हैं। यह रूढ़ी शब्द है। एकवचन 'रासो' और बहुवचन 'रासा' है। मेवाड़, ढढाड़ और मारवाड़ में झगड़े
१. विश्वनाथप्रसाद मिश्र, हिन्दी साहित्य का अतीत, प्र० भाग, पृ० ५५. २. भागवत, १०. ३३. २. ३. डा० शिवप्रसाद सिंह, सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृ० ३३०. ४. प्राचीन काव्यों की रूप-परम्परा, पृ० ५.