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अपभ्रंश कथा : परिभाषा, व्याप्ति और वर्गीकरण : २०१ परन्तु रात्रि एवं दिन में खेले जाने वाले तालारासु और लगुडारास का जैनों में निषेध किया गया क्योंकि इस तरह के खेलों से जीवहिंसा को संभावना रहती है :
ताला रासु रयणि नहि देइ, लउड़ा रासु मूलह वारेइ। शारदातनय ( १२वीं शती ) ने रासक के तीन भेद लतारासक, दण्डरासक तथा मण्डलरासक बताये हैं :
लतारासक नाम । स्यात्त्रेधा रासकं भवेत् ।
दण्डरासकमेकन्तु तथा मण्डलरासकम् ॥ हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने ससक का लक्षण अपनी गुरु-परम्परा से भिन्न दिया है :
षोडश द्वादशाष्टौ वा यस्मिन्नृत्यन्ति नायिकाः । पिण्डीबंन्धादिविन्यासैः रासकं तदुदाहृतम् ॥ पिण्डनात् तु भवेत् पिण्डो गुम्फनाच्छृङ्खला भवेत् । भेदनाद् भेद्यको जातो लताजालापनोदतः॥ कामिनीभिर्भुवो भतुश्चेष्टितं यत्तु नृत्यते ।
रागाद वसन्तमासाद्य स ज्ञेयो नाट्यरासकः॥ हेमचन्द्राचार्य के गीत-नृत्यादि के तत्त्व को रामचन्द्र ने स्वीकार किया है। . साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने रासक को नाटक का रूप माना है। उसका लक्षण इस प्रकार किया है :
रासकं पंचपात्रां स्यान्मुखनिर्वहणान्वितम् । भाषा विभाषा भूयिष्ठं भारती केशिकी युतम् ॥ असूत्रधारमेकांकं सवोधयंग कलान्वितम् । श्लिष्टनान्दीयुतं ख्यातनायिकं मूर्खनायकम् ॥ उदात्तभावविन्याससंश्रितं चोत्तरोत्तरम्।
इह प्रतिमुखं संधिमपि केचित्प्रचक्षते ॥ १. प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज, १९१६, १०८०. २. डा० शिवप्रसाद सिंह, सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृ० ३२९ से __उद्धृत. ___३. नाट्यदर्पण, ओरियण्टल इंस्टिट्यूट, बड़ौदा, १९२१, भाग १, पृ० २१४.
४. साहित्यदर्पण, पृ० १०४-५.