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________________ २०० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक मदकलकाकलीकोमलालापिन्यो विटानां कर्णामृतान्यश्लीलरासकपदानि गायन्त्यः।" अभिनवगुप्त ने अभिनव-भारती में रासक की जो परिभाषा दी है उससे स्पष्ट होता है कि रासक एक ऐसा गेय रूपक है जिसमें अनेक नर्तकियाँ एवं अनेक प्रकार के ताल-लयादि होते हैं और इसमें चौसठ नर्तक युग्म भाग लेते हैं : अनेकनर्तकीयोज्यं चित्रताललयान्वितम् । आचतुषष्ठियुगलाद्रासकं मसृणोद्धतम् ॥ रास अथवा रासकों की रचनाएँ अपभ्रंश के प्रारम्भिक काल से ही मिलनी शुरू हो जाती हैं। गेय और नृत्य पदों के रूप में बाणभट्ट के समय तक इसका प्रचलन पर्याप्त मात्रा में हो चुका था। अधिकांश रासो रचनाएँ राजस्थानी और गुजराती भाषा के जैन साहित्य में मिलती हैं। जैन रासो ग्रन्थों में अनेक प्रकार के रासकों का उल्लेख मिलता है। उन रचनाओं से पता चलता है कि जैन लोग ताली बजा-बजाकर मन्दिरों में रात्रि के समय गाते थे। दिन में पुरुष-स्त्री लगुडारास करते थे। जैनों के यहाँ ये दोनों रास १३वीं-१४वीं शताब्दी तक भी खेले जाते थे। इसका प्रमाण सप्तक्षेत्रीरासु (सं० १३२७) नामक रचना के एक उद्धरण से ही मिल जायेगा : .. बइसइ सहइ श्रमणसंघ सावय गुणवंता।। जोयइ इच्छवु जिनह भुंवणि मनि हरख धरंता॥ तीछे तालारस पडइ बहु भाट पढ़ता। अनइ लकुटारस जोइई खेला नाचना ॥४८॥ सविह सरीखा सिणगार सवि तेवउ तेवड़ा। नाचइ धामीय रंभरे तउ भावहि रुडा॥ सुललित वाणी मधुरि सादि जिणगुण वायंता। ताल मानु छंद गीत मेलु वाजिंत्र वाजंता ॥ ४९ ॥ १. हर्षचरित, चतुर्थ उच्छ्वास. . २. भरतनाट्यशास्त्र, भाग १, पृ० १८३. ३. प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज, १९१६, पृ० ५२.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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