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________________ .१९६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक वर्ग ऐतिहासिक भी माना जा सकता है, किन्तु ऐतिहासिक कथा, उपन्यास या कहानी में प्रयुक्त होने पर अनिवार्यतः कल्पना मिश्रित हो जाती है । कल्पनाप्रसूत या प्रधानरूप से कल्पनाप्रसूत कथाएं ही कथा-साहित्य का आधार बनती हैं। यों तो साहित्य और काव्य समानार्थी शब्द हैं और काव्य का पद्मबद्ध होना अनिवार्य नहीं है। परन्तु साधारणतया पद्यबद्ध कथाओं को कथाकाव्य और गद्य में रचित कथाओं को कथा-साहित्य, उपन्यास, उपन्यासिका, कहानी आदि कहते हैं। आधुनिक साहित्य में कथा-साहित्य शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के 'फिक्शन' के अर्थ में होता है।" काव्यरूपों के विकास के प्रसंग में डा० शम्भूनाथ सिंह ने वोरभावना प्रधान, रोमांसिक तत्त्वों से युक्त प्रेमभावना प्रधान और लोकविश्वासों एवं निजधरी पात्रों से सम्बन्धित तथा धर्मभावना प्रधान इन तीन गाथाचक्रों से काव्यरूपों का विकास माना है। उनकी मान्यता के अनुसार 'विकासोन्मुख सामन्तयुग में समाज के वर्गविभक्त हो जाने और अभिजात वर्ग के उदय के बाद सामन्ती दरबारी वातावरण में विशिष्ट कवियों द्वारा विकसनशील महाकाव्यों के अनुकरण पर रोमांसिक कथा-आख्यायिकाओं या प्रेमाख्यानों की रचना होने लगी। इस तरह प्रबन्धकाव्य ( महाकाव्य-खण्डकाव्य ) तथा कथाकाव्य में दो भिन्न रूप हो गए। प्रबन्धकाव्य और कथाकाव्य का यह भेद भारतवर्ष में ही नहीं, पाश्चात्य देशों में भी बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। युनान में चौथी शताब्दी में इलियड ओडेसी के रोमांसिक तत्त्वों और साहसपूर्ण कार्यों के अनुकरण में गद्यबद्ध रोमांसिक कथाओं की रचना हई और पूनर्जागरणयुग में महाकाव्यों के पुनः उत्थान के पहले तक सारे योरप में इस काव्यरूप का बहुत प्रचार रहा। मध्ययुग के अन्तिम भाग में ये कथाएँ गद्यबद्ध और पद्यबद्ध दोनों प्रकार की होती थीं।"उत्तर मध्ययुग में पद्यबद्ध कथाकाव्य बहुत ही लोकप्रिय काव्यरूप था। गद्यबद्ध रोमांस को आगे चलकर इटली और स्पेन में नावेला और इंग्लैंड में 'नावेल' कहा जाने लगा और वही आधुनिक उपन्यास या कहानी का आदि रूप था।' 'मध्ययुग में अभिजातवर्गीय रोमन क्लासिकल परम्परा के विरुद्ध रोमांसिक स्वच्छंदता की प्रवृत्ति ने जो विद्रोह किया उसके परिणामस्वरूप १. संपा०-डा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, हिन्दी साहित्य कोश, पृ० १८३-८४.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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