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________________ सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १९१ में आता है, ये सात दैवीय और मानवीय सिद्धान्त मिलकर पूर्ण आध्यात्मिक सत्ता का रूप बनते हैं। वृत्त द्वारा जोती गई सात नदियों और बल द्वारा सात किरणों के अवरोध से और सभी प्रकार के मिथ्यापन से सत्य द्वारा मुक्ति मिल जाने से शुद्ध चेतना की प्राप्ति होती है और स्वरलोक पर अधिकार हो जाता है, आत्मप्रवाह के हो जाने से मिथ्याज्ञान और अन्धकार का नाश होकर मानसिक और शारीरिक आनन्द मिलता है, हममें दैवीय तत्त्वों के बढ़ने से हम मृत्यु एवं अन्धकार पर विजय पा लेते हैं।" वेदों के समान ही उपनिषदों में भी प्रतीक-योजनासम्बन्धी सामग्री उपलब्ध हो जाती है। जैसा कि संसार के लिए वेद में वृक्ष का प्रतीक आया है उसी प्रकार कठोपनिषत् में ब्रह्मा ही संसारवृक्ष के रूप में अवस्थित है : ऊर्ध्वमूलोऽवाकशाख एषोऽश्वत्थः सनातनः ॥ तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते ॥ तस्मिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन एतद्वै तत् ॥ . अर्थात् मूल ऊपर है, शाखाएं नीचे की ओर हैं। यह चिरन्तन अश्वत्थ है। यही तेज है, यही ब्रह्म है, इसे ही अमृत कहते हैं । इसी से सब लोक लगे हुए हैं। इसका अतिक्रमण कोई नहीं कर सकता। यही .. स वृक्षकालाकृतिभिः परोऽन्यो। वह वृक्ष, काल, आकृति आदि से परे और कुछ है। . इनके अतिरिक्त उपनिषदों में जिस प्रणव अथवा ओऽम् की व्याख्या - है, स्वयं एक प्रतीक ही है। ___ ओमिति ब्रह्म । ओमितीदं सर्वम् ॥ ओऽम् ब्रह्म है । ओऽम् ही यह सब कुछ है । 1. Ibid., p. 207 २. कठोपनिषत्, २.२.१. ३. श्वेताश्वतरोपनिषत्, ६.६. ४. तैत्तिरीयोपनिषत्, १.८.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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