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________________ १९२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक ब्रह्मपुराण में ओम् की व्याख्या इस प्रकार की गई है : सैव वागब्रवी देवी प्रकृतिर्याभिधीयते । विष्णुना प्रेरिता माता जगदीशा जगन्मयो ॥ १ ओंकारभूता या देवी मातृकल्पा जगन्मयी ॥ वही देवी वाक् जो प्रकृति कहलाती है, माता जगदीशा, जगद्रू'पिणी है । जो ओमकार बनी हुई है उसने विष्णु से प्रेरित होकर कहां । बौद्ध साहित्य में प्रदीप, नौका, जुआ, पंचेन्द्रियां, पंचस्कन्ध, ब्राह्मण, नगर, गृह, वृक्ष, अन्धकार और उसपार आदि बहुत से प्रतीकात्मक शब्द उपलब्ध हैं। 'उसपार' का अर्थ बौद्धों में निर्वाण से लिया जाता है अथवा यों कह सकते हैं कि निर्वाण का 'उसपार' प्रतीक है । धम्मपद की एक गाथा है जिसमें उसपारबोधक एवं निर्वाण के लिए प्रयुक्त प्रतीक को देखा जा सकता है : अप्पका ते मनुस्से में जना पारगामिनो । अथायं इतरा पजा तीरमेवानुधावति ॥ इसी प्रकार सिद्ध साहित्य में भी प्रतीकों की भरमार है । यहाँ कुछ शब्दों का उल्लेख मात्र कर देना पर्याप्त होगा । सिद्ध साहित्य में वृक्ष को शरीर का प्रतीक माना गया है । स्मरण रहे कि ऋग्वेद में वृक्ष को संसार के प्रतीक के लिए प्रयोग में लाया गया है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है | चादर को भी तन का प्रतीक माना है । गंगा-यमुना को इड़ा - पिंगला अथवा सुषुम्ना का, गाय को इंद्रियों का हंस को चित्त, मन, पवन या प्राण का, हरिणी को माया का चोर को दुष्ट मन का, दशमद्वार को ब्रह्मरन्ध्र का, काग को अज्ञानी चित्त का, कमल को चक्रों का, ससुराल को ब्रह्मलोक का प्रतीक मानकर प्रयोग किया गया है । इसी प्रकार के अन्य प्रयोग भी मिल जाते हैं। वास्तव में सिद्धों ने योगमार्ग का अनुसरण करने के लिए प्रतीकों को अपने साहित्य में स्थान दिया । अन्य साहित्यों की भाँति जैन साहित्य में भी प्रतीकों का महत्त्व था । इस विषय में मयणपराजयचरिउ की प्रस्तावना में डा० हीरालाल जैन 'प्रतीकात्मक नाटक परम्परा' शीर्षक से विशद अध्ययन प्रस्तुत किया है। जैन दर्शन में प्रतीकों का निक्षेप से तात्पर्य है । डाक्टर साहब ने लिखा है। १. ब्रह्मपुराण ( आनन्दाश्रम, पूना ), अध्याय १६१, श्लोक १४, १८. २. धम्मपद, गाथा ८५.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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