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________________ सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १८९ का रूप प्रतीकात्मक है । शिव का चन्द्रमा वागोद्भव का, नाश कास्मिक शक्ति का, त्रिशूल इच्छा-क्रिया-ज्ञान का प्रतीक है। इसी प्रकार अनेक उपादानों और तत्त्वों की उन्होंने बड़ो विशद व्याख्या की है। प्रायः ही भारतीय देवताओं के स्वरूप को लेकर विदेशी विद्वानों ने गलत धारणाएं व्यक्त की हैं। यदि भारतीय देवता के चार हाथ हैं और उनमें शंख, चक्र, गदा और पद्म लगा है तो उनको इसमें कला का भोंडापन ही दिखाई देता है। उनमें से अधिकांश की बुद्धि प्रतीकात्मक प्रक्रिया तक पहुँच ही कैसे सकती थी ? अस्तु, वेद में विष्णु का प्रतीक आया है, उसके सम्बन्ध में श्री अरविन्द का कथन है : यह वैदिक वाक्यालंकार पुराणों की समान प्रतीकात्मक कल्पनाओं पर प्रकाश डालता है, विशेषकर उस प्रतीक पर जिसमें कि विष्ण प्रलय के बाद क्षीरसागर में अनन्तनाग के वलय पर सोये हुए हैं। संभवतः कुछ लोग यह आक्षेप कर सकते हैं कि पुराण अन्धविश्वासी हिन्दू पुरोहितों या कवियों द्वारा लिखे गए थे, जिनका विश्वास था कि ग्रहण एक दैत्य के कारण होता है, जो सूर्य और चन्द्रमा को खाता है, वे सरलता से इस बात पर विश्वास कर लेते थे कि जब भी विसृष्टिकाल होता है तब सर्वोच्च देव अपने स्थूल शरीर से क्षीरसमुद्र में शेषनाग पर सोने चला जाता है और इसलिए इन लोककथाओं या गपाष्टकों से आध्यात्मिक अर्थ खोजना कोई बुद्धिमत्ता नहीं होगी । मैं उत्तर दूंगा कि वास्तव में ऐसे अर्थों को खोजने को कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि उन अन्धविश्वासी कवियों ने सामान्यरूप से सबके सामने अपनी बात बड़े सरल ढङ्ग से रख दी है। उन्होंने विष्णु के सर्प का अनन्त नाम दिया है और अनन्त का अर्थ होता है अनादि, इसीलिए उन्होंने स्पष्ट कहा है कि यह कल्पना अलंकार मात्र - है और विष्णु अर्थात् समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त शक्ति विसृष्टि के काल में उस अनन्त के वलय पर सोती है। समुद्र के संदर्भ में वैदिक कल्पना स्पष्ट कर देती है कि यह समुद्र का अस्तित्व अनादि सत्ता का प्रतीक है और यह अनादि सत्ता का समुद्र पूर्ण माधुर्य का सागर है, दूसरे शब्दों में महानन्द का निधि है। क्योंकि मधुर क्षीर (स्वयं एक वैदिक कल्पना) और मधु में कोई तात्त्विक भेद नहीं है, मधु अथवा माधुर्य वामदेवों का स्तोत्र है। __ इस प्रकार हम देखते हैं कि वेद और पुराण दोनों एक ही प्रकार की प्रतीकात्मक धाराएं रखते हैं, उनके लिए समुद्र अनन्त सत्ता का प्रतीक
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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