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________________ . सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १८५ तपी से कहा। साहस तपी ने कहा कि प्रीतपुर नामक स्थान पर कृपा नाम के राजा के पास जाने से तुम्हारा काम सिद्ध हो जायेगा। कृपा के पास पहुंचने पर कृपा ने बुद्ध के सहयोग से जीव के हृदय में प्रेम संचार कर दिया। इस प्रकार महाराज सुखदाता के प्रसाद से जीव पूनः शरीरपूर के अधिपति बन गए।' इस पत्र में जीव, मन, दुर्जन, शरीर, काया, दृष्टि, चितवन आदि शब्द प्रतीकात्मक हैं। अतः कथा को आध्यात्मिकता स्वतः सिद्ध है। इसी प्रकार अनुराग-बांसुरी की कथा में मन फुलवारी, मूरतिपुर नामक नगर में जीव नाम का राजा तथा उसके अन्तःकरण नाम का पुत्र । अन्तःकरण के संकल्प और विकल्प नामक दो साथी। इनके अतिरिक्त बुद्धि, चित्त और अहंकार नामक तीन मित्र । ये सभी प्रतीक हैं जो साधनात्मक स्थिति के अंग ही हैं। कथा में और भी इसी प्रकार के विद्यापुर, मोहनमाला, ज्ञातस्वाद, सनेह, दर्शनराय, सर्वमंगला आदि ऐसे पात्र हैं जो पूरी तरह प्रतीकान्तर्गत आते हैं। इस कथा में अन्य कथाओं की अपेक्षा अध्यात्म तत्त्व अधिक स्पष्ट होकर सामने आते हैं। यही कारण है कि कथा को पढ़ने मात्र से ही कथा का उद्देश्य समझ में आ जाता है । इन कवियों की प्रेम के माध्यम से अध्यात्म का प्रचार करने की सूझ-बूझ सराहनीय रही है। . सूफी काव्यों और हिन्दू-काव्यों के शिल्प, मसनवी एवं चरितकाव्यों .: के तुलनात्मक अध्ययन तथा प्रतीक व आध्यात्मिकता पर विचार करने के बाद स्वभावतः एक प्रश्न उभरने लगता है। वह यह कि सूफी काव्यों का प्रासाद सूफियों ने पूर्णतः भारतीय ईंट-पत्थर और गारे से खड़ा किया अथवा उसमें विदेशी उपादानों का ही उपयोग किया ? इस सम्बन्ध में जहाँ तक शिल्प का सवाल है मैं अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत कर चुका हूँ कि मंगलाचरण, स्तुति-निंदा, कवि-विवेचन, शाहेवक्त का उल्लेख और कथानक रूढ़ियों का उल्लेख सूफ़ी कवियों ने भारतीय साहित्य विशेषकर अपभ्रंश साहित्य के अनुसार ही किया है। मसनवियों की एक विशेषता यह बताई जाती है कि विषयानुसार विवेचन करते समय ऊपर शीर्षक देकर कवि या लेखक उसका वर्णन करता है। हमारे यहाँ भी कवि या तो आरम्भ में ही अथवा अध्याय, परिच्छेद या सर्ग के अन्त में विषयगत सूचना दे देता है। उदाहरण के लिए मयणपराजयचरिउ के रचयिता
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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