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१८४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
ईश्वरीय सिद्ध किया है। उस परम ज्योति से चन्द्रमा प्रकाशवान है। आकाश सहस्रों तारागणरूपी नेत्रों से उस परमज्योति के दर्शन करता
है तेहि चन्द्र बदन लखि, जगत नयन उंजियार।
गगन सहस लोचन सों, निरखे तेहिक सिंगार.॥ इन्द्रावती में आने वाली अवान्तर कथाओं के माध्यम से कवि ने अध्यात्मवाद को पर्याप्त स्थान दिया है। कुंवर योगो के भेष में इन्द्रावती. की प्राप्ति के लिए उसकी फूलवारी में साधना करता है, यह वृत्तान्त इन्द्रावती को उसकी चेता नामक मालिन से मिला। इन्द्रावती फुलवारी में गई। कुमार देखकर मूच्छित हो गया। इन्द्रावती एक पत्र लिखकर वहाँ से चली आई। इस पत्र में जिस कहानी को लिखा गया है उससे कथा की आध्यात्मिकता पर अच्छा प्रकाश पड़ सकता है। अतः उस पत्र को दे देना उपयुक्त होगा-'जीव नाम के राजा का जन्म शरीरपुर में हुआ। वह नगर की शोभा देखकर सब भूल गया । उसी नगर में दुर्जन नाम का राजा भी था जो जीव राजा को मोह-माया द्वारा उसके मार्ग में बाधक था । जीव राजा ने बुद्ध नामक अपने मन्त्री से यह वृत्तान्त कहा कि एक नगर में दो राजा नहीं रह सकते । मन्त्री ने उसे सावधानीपूर्वक राज्य चलाने की मन्त्रणा दी। जीव राजा के मन नाम का एक पुत्र था। वह एक सुन्दरी पर आसक्त था परन्तु वह उसे प्राप्त नहीं हुई तो उसने दुर्जन से सब बात कह दी। दुर्जन ने जीव.राजा को सलाह दी कि कायापुर के राजा दर्शन को रूप नामक सुन्दरी कन्या से मन का विवाह करा दिया जाये। राजा ने इसे उचित मानकर दृष्टि नामक अपना दूत कायापुर भेजा। दर्शन ने अपनी कन्या से पूछा तो उसने अस्वीकार कर दिया । जीव क्रुद्ध हो उठा। उसने पुनः बुद्ध मन्त्री को भेजकर सारा वृत्तान्त मंगाया। दर्शन की कन्या रूप ने अपनी दासी चितवन को मन का रूप आदि देखने को भेजा। रूप को मन पर दया आई। मन रूप के यहाँ आने-जाने लगा। दोनों का विवाह हो गया। मन को पुत्र-पुत्री भी हो गए। जीव राजा बालकों में फंस गया और राज-काज दुर्जन को सौंप दिया। जीव के सेवक दुर्बल हो गए। बुद्ध ने जीव के हाल को साहस
१. इन्द्रावती, पृ० ४५.