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१८२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
ऋतुमंडल जो देखा हेरी। घर-घर चलै बात तेहि केरी॥ पंछी वोहि लगि फिरहिं उदासा । जल के सुत ओहि नाउं पिपासा॥ परवत जहि मौन होइ नाऊं । आसन मारि बैठि एक ठाउं ॥ पहुमी दहु जो सरग लहु बाढ़ी। सेवा करहिं एक पग ठाड़ी ॥ जानि बूझि जो ताहि बिसारा । सो मनु जियहिं मरा अडारा॥
अति सुरूप चित्रावलो, रवि ससि सर न करे। धन सो पुरुष और धन हिया, ओहिक पंथ जिउ देइ ॥ उसमान की कथा को आध्यात्मिक प्रमाणित करने के लिए इतने तथ्य पर्याप्त हैं। कवि ने एक स्थान पर परमात्मा अथवा प्रिय तक पहुँ-. चने के लिए चार नगरों-जोकि शरीअत, तरीक़त, मारीफत आदि चार स्थितियों के प्रतीक हैं-को पार करने का उल्लेख किया है । विषयादिक वासनाओं का प्रतीक पहला नगर भोगपुर है। यहाँ साधक की प्रथम भूमिका होती है। साधक को इस भूमिका अथवा अवस्था से निकलना कठिन होता है क्योंकि सांसारिक माया अपनी ओर खींचती है। दूसरा नगर गोरखपूर है जिसमें साधक गुरु से योगमार्ग को शिक्षा ग्रहण करके पथ पर अग्रसर होता है और तृतीय नेहनगर में प्रवेश पाता है। यहाँ वह परमात्मा अथवा प्रेमिका से समन्वय स्थापित करता है । इसके बाद की अंतिम स्थिति रूपनगर है जहाँ वह उस रूप की, सत्ता में एकाकार हो जाता है। साधना के मार्ग आदि के उल्लेख के अतिरिक्त कवि ने सत्य, पाप और पुण्य की भी व्याख्या की है जिसका धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है। सत्य के विषय में उसमान कहते हैं :
सत्य समान पूत जग नाहीं। सत सो रहै नाउं जग माहीं ॥ कोखि पूत एक देस बखाना। सत्य पूत चारो खंड जाना॥
निश्चय सत्य अमर की मूरी। प्रगट देखिये हरिचन्द पूरी॥ पाप-पुण्य :
पाप न रहै छिपाए छिपा। छिपे पुण्य जो अहनिसि जपा ॥ पाहि गोइ कहां कोउ सोवा। आपहिं पाप जनम तेहि खोवा ॥ तजहु पाप पंथहि जिर जानी। करहु पुन्य औ रहै कहानी॥
पुन्य करत जनि लावहु धोखा । जासौं होइ दुहं जग मोखा ॥ १. चित्रावली, पृ० ७८. २. वही, पृ० १८. ३. वही, पृ० ५४.