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.१८० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
उसे उसकी प्रेमिका पद्मावती अर्थात् सिद्धि प्राप्त होती है। इस प्रकार कथा के आध्यात्मिक तथ्यों से परिचित हआ जा सकता है।
सूफी प्रेमाख्यानकों में ही कथा को आध्यात्मिक ढाँचे में ढालने के लिए प्रतीकों का प्रयोग नहीं हुआ है वरन् हिन्दू काव्यों में भी ऐसा पाया जाता है। पूहकर कवि ने रसरतन वैरागर को वैराग्य रूप और सूरसेन राजा को जीवनी संज्ञा से अभिहित किया है। उसके सत्संगति और सद्बुद्धि नामक दो पत्नियाँ हैं। इन्हीं के सहारे प्रीत को ज्योति जलाकर, विषयादिक सुखों का त्याग करके इष्टलाभ लेना चाहता है :
वैरागर वैराग वपु, हीरा हित हरि नाम । प्रोत जोत जिय जगमगै, हरै त्रिविध तनु ताप ॥ सतसंगति सतबुद्धि उर, विव घरनी. संग लाय।
ज्ञान बान प्रस्थान करि, तजै विष सुख पाय ॥ उसमान कवि की रचना चित्रावली का कथासार द्वितीय अध्याय में दिया गया है। कथा के अध्ययन से लगता है कि इनका आध्यात्मिक पक्ष जायसी की रचना से प्रभावित है। कवि की अद्वैत भावना का तब पता चलता है जबकि वह स्वयं कहता है :
सब वही भीतर वह सब मांही । सबै आपु दूसर कोउ नाहीं॥ . दूसर जगत नामु जिन पावा । जैसे लहरी उदधि कहावा ॥२
पात्रों को प्रतीक रूप में देखा जा सकता है। चित्रावली विद्या और कंवलावती अविद्या की प्रतीक हैं। चित्रावली ईश्वरीय शक्ति की प्रतीक भी है। जब वह जल में अदृष्ट हो जाती है तब उसको सखियाँ कहती हैं कि तू प्रकट रूप में भी छिपी रहती है फिर गुप्त रूप में हम तुझे क्या जान सकते हैं। ब्रह्मा चारों वेदों को पढ़कर भी तुम्हें न खोज सका और तुम्हारे भेद को न जान सका। शंकर भी सेवा करके हार गये और पार न पा सके। हम ऐसी अंधी हैं कि अपना आपा ही नहीं सूझता तब तुम्हारा भेद कैसे जानेंगी? तुम्हारा ऐसा कौनसा स्थान है जहाँ तुम नहीं हो? तुम सर्वत्र हो परन्तु हमारी नेत्र-ज्योति ऐसो नहीं जो तुम्हें देख सके । योगी होने अथवा पोथियों के पढ़ने से कुछ नहीं होता । तुम्हें तो वही पा सकता है जिसे तुम स्वयं मार्ग दिखाती हो : १. रसरतन, संपा०-डा० शिवप्रसाद सिंह, पृ० २६८. २. चित्रावली, पृ० १.