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१७८ : अपम्रश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
हो जाता है। बुल्लेशाह ने अद्वैत को भावना के सम्बन्ध में उर्दू के ऐन वे गैन का उल्लेख किया है कि ऐन पर एक बिन्दु ( नुक्ता ) लगा देने से गैन बन जाता है और उसी बिन्दु को हटा देने पर पुनः गैन से ऐन बन जाता है :
टुक बूझ कवन छप आया है। इक नुकते में जो फेर पड़ा, तव ऐन गैन का नाम धरा। .. जब मुरसद नुकता दूर किया, तब ऐनों ऐन कहाया है।' परन्तु इन उद्धरणों का प्रतीकों के सन्दर्भ में कोई महत्त्व नहीं है । कहने का भाव यह है कि उर्दू वर्णमाला के २९ अक्षरों पर आधारित. सूफियों की जो परिभाषाएँ हैं वे प्रतीक नहीं अपितु परिभाषाएँ ही हैं। ___ जिन सूफ़ी कवियों ने जान-बूझकर अपने काव्यों में प्रतीकों को स्थान दिया है, उनमें से अधिकांश ने कथा को आध्यात्मिक धरातल पर उतारने के लिए ही उनका प्रयोग किया है । जायसी ने पदमावत के प्रारम्भ में ही कथा के रहस्यपूर्ण अथवा आध्यात्मिक अर्थ की ओर स्पष्ट संकेत कर दिया है :
आदि अंत जसि कथथा अहै। लिखि भाषा चौपाई कहै। कबि बिआस रस कौंला पूरी । दूरिहि निअर निअर भा दूरी॥
भंवर आइ बनखण्ड हुति लेहि कंवल कै बास ।
दादुर बास न पावहिं भलेहिं जो आहिं पास ॥ पहले संकेत किया जा चुका है कि सूफियों का काव्य एवं अध्यात्म पक्ष प्रेमभित्ति पर खड़ा है। प्रेम की साधना से एक साधक वह सब कुछ पा लेता है जो उसे इष्ट होता है। प्रेम ऐसा माध्यम है जो परमात्मा से साक्षात्कार ही नहीं अपितु सामरस्य की स्थिति ला देता है। सूफी परिभाषा में परमात्मा ही प्रेमिका है। जायसी ने पदमावत में प्रमुख पात्रों के रूप में जिन प्रतीकों की स्थापना की है वे कथा की आध्यात्मिकता पर प्रकाश डालते हैं। पद्मावती विश्वज्योति के रूप में अवतरित होती है। वह प्रकाश की प्रतीक है :
१. सूफ़ीमत और हिन्दी साहित्य, पृ० १५६. २. पदमावत, पृ० २४.