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. . सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १७५ . साधनात्मक प्रसंगों में सूफी कवियों ने दर्पण का उल्लेख हृदय के प्रतीकार्थ में किया है। साधक को चाहिये कि वह अपने हृदयरूपी दर्पणपर धूल न जमने दे अन्यथा वह अपने इष्ट का प्रतिबिम्ब नहीं देख सकेगा। इसीलिए उसमान दर्पण को संभालने की बात कहते हैं :
यह दरपन तुम्ह लेहु संभारी, जेहि महं देखहु दरस पियारो।
अब नहिं लावह चित बैरागा, मांजत रहब जो मैल न लागा॥ नूरमुहम्मद का कथन है :
· पैहबहीं नहि उचित परगट देउ देखाय । दखे मेरो छाया, ऐसे करहु उपाय ॥
झांका दरपन मों परछाही, परी बदन को बिछुरी नाहीं॥ वास्तव में सूफियों को 'दर्पण' प्रतीक योजना से एक रहस्योद्घाटन होता है। भारतीय विचारधारा में ईश्वर को विराटस्वरूप माना गया है। उस विराट को साक्षात् देखने को शक्ति साधारण प्राणी में कैसे संभावित है ? वह तो उस स्वरूप को हृदयरूपी दर्पण में उतारता है-देखता है।
सूफ़ी भी अपने प्रिय अर्थात् परमात्मा को हृदयरूपी दर्पण में देखता है : .. . तेहि रूपवंती रूप सो, दरपन पायउ रूप।
इन्द्रावती में कुंवर को स्वप्नदर्शन होता है। कुंवर अपनी अनुभूति को
इस प्रकार व्यक्त करता है : - मोहिं अचरज हिरदय मों आही। कैसे मुकुर म देखा ताही॥
यह सपने को को पतियाई । मुकुर सौहं बिनु देखिन जाई ॥
जायसी ने लिखा कि अमुक-अमुक वस्तुओं ने दर्पण के समान पद्मावती के अंगों का प्रतिबिम्ब ग्रहण किया :
१. चित्रावली, पृ० १०२. २. इद्रावती, पृ० ११४. ३. वही, पृ० १०. ४. वही, पृ० ११,