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________________ १७४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक गढ़ तस बांक जैसि तोरि काया। परखि देखु तँ ओहि को छाया॥ पाइअ नाहिं जूझि हठि कीन्हे । जेई पावा तेइं आपुहि चीन्हे ॥ नौ पौरी तेहि गढ़ मंझिआरा । औ तहं फिहिं पांच कोटवारा ॥ दसवं दुआर गुपुत एक नाँको । अगम चढ़ाव बाट सुठि बांकी ॥ . भेदी कोइ जाइ ओहि घाटी । जौं लै भेद चढे होइ चांटी ॥... गढ़ तर सुरङ्ग कुंड अवगाहा । तेहि महं पंथ कहों तोहि पाहां ॥ चोर पैठि जश सेंधि संवारी । जुआ पैंत जेउं लाव जुआरी ॥ .' जस मरजिया समुन्द धंसि मारै हाथ आव तब सीप। . ढूढि लेहि ओहि सरग दुवारी और चढ़, सिंघलदीप ॥१२५॥ अर्थात् गढ़ वैसा ही बांका है जैसा तेरा शरीर । तू परीक्षा करके देख कि दोनों में साम्य है कि नहीं। जिसने आत्मा को पहचान लिया उसने सिद्धि प्राप्त कर ली। शरीर में नौ इन्द्रिय-द्वार हैं और पंच प्राण उसकी रक्षा करने वाले कोतवाल हैं। ब्रह्मरन्ध्र उसका दशम गुप्त द्वार है । उस तक पहुंचने का मार्ग दुर्गम्य और टेढ़ा है। उसका भेद गुरु से जानकर ही कोई भेदी पिपीलिका गति से उस घाटी तक पहुँच सकता है । इस शरीररूपो गढ़ में सबसे नीचे सुषुम्नारूपी सुरंग है जो मूलाधाररूपी अगाध कुंड से आरम्भ होती है। ब्रह्माण्ड तक पहुँचने का मार्ग उसी में होकर गया है। जिस प्रकार चोर चुपचाप सेंध लगाकर घुसता है उसी प्रकार जो गुप्त साधना करता है, जिस प्रकार जुआरी अपनी सारी पूंजी दाव पर लगाकर जुआ खेलता है उसी प्रकार जो साधक अपना माया-मोह त्यागकर साधना करता है और समुद्र में घुसने वाले गोताखोर को भांति जोकि प्राणों को हथेलो पर लेकर योग-साधना करता है उसी को ब्रह्मरूपी मणि प्राप्त होती है। जो सुषुम्ना के इस स्वर्गद्वार नामक आरम्भ को पा लेता है वही अंतिम सिद्धि-स्थान तक पहुँचता है। दशम द्वार को कोई मर्मी ही खोल सकता है, इसकी जानकारो नूरमुहम्मद को भलीभाँति थी : ___दसई द्वार न खोलत कोई । तब खोलें जा मरमी होई ॥ . १. वही, पृ० २०५. २. इन्द्रावती, पृ० २७.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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