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________________ . ... सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १७३ उक्त दोहे में जो चार बसेरे की बात कही गई है वह स्पष्ट हो सूफियों के शरीअत, तरीकत, मारिफ़त और हकीकत इन चार अवस्थाओं की ओर लक्ष्य करके कही गई है। ये कुछ ऐसे उद्धरण हैं जिनमें हठयोग आदि सम्बन्धी अर्थों को प्रतिपादित करने में आयास और श्रम की अपेक्षा नहीं। श्वास प्रक्रिया से कुंडलिनी को जाग्रत किया जाता है । उसी के द्वारा साधक ब्रह्माण्ड तक अथवा ब्रह्मज्ञान की स्थिति तक पहुंचता है। इसमें मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा और सहस्रादि चक्रों को स्थिति से गुजरना होता है । इस मार्ग को ऊंचाई से तय करना अत्यधिक कठिन होता है। जायसी ने ब्रह्माण्ड की ऊँचाई का और उस तक पहुँचने के मार्ग का वर्णन सिंहलगढ़ के माध्यम से इस प्रकार किया है: सो गढ़ देख गंगनु त ऊंचा । नैन देख कर नाहिं पहूँचा ॥ बिजुरी चक्र फिरै चहुं फेरी। औ जमकात फिरै जम केरी॥ धाइ जो ब्राजा के मन साधा । मारा चक्र भएउ दुइ आधा॥ चंद सुरुज औ नखत तराई। तेहि डर अंतरिख फिर सबाई॥ पवन जाई तहं पहुंचै चहा । मारा तैस टूटि भुइं बहा ॥' हठयोगी साधना की दुरूहता भी किसी से छिपी नहीं है। उक्त उद्धरण से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। जायसी ने एक अन्य स्थान पर दशम द्वार का उल्लेख किया है जो कि यौगिक प्रक्रिया से ही संबंधित जान पड़ता है : दसवं वार तार का लेखा। उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा। जाइ सो जाइ सांस मन बंदो। जस धंसि लीनह कान्ह कालिन्दी॥ . अर्थात् दशम द्वार अथवा ब्रह्माण्ड अत्यधिक ऊँचे स्थान पर है । जिसने अपनी दृष्टि अन्य वस्तुओं से हटाकर उसी ओर लगा दी है वही उसे देख सकता है । जिसका प्राण मन के साथ बंध जाता है वही उसके समीप पहुंच पाता है। गढ़ को शरीर की रचना द्वारा जायसी जब समझाने लगते हैं तब उनकी प्रतीकात्मक शैलो की बात और भी मुखर होकर सामने आ जाती है । जायसी लिखते हैं : १. पदमावत, पृ० १५४. २. वही, पृ० २०७.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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